इंडियन काउंसिल ऑफ सोशल साइंस रिसर्च के पूर्व नैशनल फैलो प्रोफेसर एस. सुब्रामनियन ने आय अंतरण योजना को समायोजित करने के लिए बढ़े कराधान और वांछित वृद्धि के संभावित स्तर के लिए कुछ अनुमान करने के प्रश्न से सीधा निपटने के महत्व पर बल दिया है।
प्र. 1. क्या आप बता सकते हैं कि न्याय क्यों ज़रूरी है जबकि इतनी सारी अन्य गरीबी निवारण योजनाएं पहले ही मौजूद हैं? हमें मौजूदा योजनाओं के लिए ही बजट क्यों नहीं बढ़ा देना चाहिए?
(मैं यह मानकर चलता हूं कि ‘न्याय’ का मतलब कांग्रेस पार्टी द्वारा हाल ही में घोषित एक विशिष्ट कार्यक्रम से इतना नहीं नहीं है, जितना कि एक सार्वभौमिक बुनियादी आय (यूनिवर्सल बेसिक इनकम, यूबीआइ) के विचार से है।) कुछ बुनियादी जरूरतों की पूर्ति के लिए आवश्यक आय सरकारी (रंगराजन समिति द्वारा निर्धारित) गरीबी रेखाओं से काफी अधिक है, और इन निम्न सरकारी लाइनों के अनुसार भी इससे कम आय वाले लोगों की संख्या काफी अधिक है। गरीबी निवारण की वर्तमान योजनाएं गरीबी की समस्या से निपटने के लिहाज से स्पष्ट रूप से अपर्याप्त हैं। वर्तमान गरीबी निवारण योजनाओं में से प्रत्येक में सुधार करने की जरूरत है, और निश्चय ही उनका विस्तार करने की भी जरूरत है। लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि ऐसा यूबीआइ की कीमत पर क्यों होना चाहिए जिसका आधार यह खास विचार है कि नकद के रूप में आय की किसी रकम की विवेकाधीन उपलब्धता एक महत्वपूर्ण मानवीय अवस्था है जो साकार होने योग्य है। इस लक्ष्य तक पहुँचने का यूबीआइ एक प्रत्यक्ष साधन है; और इस बात की (उग्र) जिद कि इस मामले में बुनियादी सेवाएं और रोजगार गारंटी एकमात्र साधन हैं इस (रूढि़वादी) जिद जितनी ही कट्टर है कि विकास और उसके बाद होने वाला ऊपर से नीचे रिसाव (ट्रिकलडाउन) लक्ष्य तक पहुँचने का एकमात्र साधन है। यह बात सच है कि काफी लंबे समय से ‘आय’ को विकास के एकमात्र सार्थक सूचक के बतौर देखा जाता है, लेकिन उस विचार के विरुद्ध वैध प्रतिघात में निश्चित तौर पर इस विश्वास से इनकार नहीं होना चाहिए कि आय भी महत्व रखती है और क्षमता प्राप्त करने तथा व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर होने वाले किसी विमर्श में काफी अधिक महत्व रखती है। निस्संदेह, गरीबी निवारण के लिए इस या उस दृष्टिकोण के बीच चुनाव की जरूरत व्यवहार्यता संबंधी अवरोधों की वस्तुगत वास्तविकता के कारण होती है, लेकिन इस पर अधिक बात बाद में।
प्र. 2. क्या आपकी समझ में इसके बजाय धनराशि का उपयोग सार्वजनिक शिक्षा और स्वास्थ्य संबंधी वर्तमान सेवाओं में सुधार के लिए किया जाय तो उसका बेहतर उपयोग होगा? या हमने सार्वजनिक शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा प्रदान को कार्यशील बनाने का प्रयास छोड़ दिया है?
यह सवाल प्रश्न 1 से संबंधित है। बुनियादी सेवाओं और बुनियादी आय, दोनो के लिए गुंजाइश होनी चाहिए। मुझे यकीन नहीं है कि एक को दूसरे के खिलाफ खड़ा कर देना कोई अच्छा विचार है। लेकिन बजट संबंधी मजबूरियों की बाधक वास्तविकता के बारे में क्या कहा जा सकता है? नीचे का प्रश्न 4 इस समस्या को प्रत्यक्ष रूप से संबोधित करता है।
प्र. 3. क्या आप कोई ऐसी वैकल्पिक योजना पसंद करेंगे जिसमें हर प्राप्तकर्ता को मिलने वाली रकम को घटाकर नकद अंतरण के जरिए उतनी रकम का वितरण अधिक संख्या में परिवारों के बीच किया जाय? अगर हां, तो क्यों?
हां, मैं पसंद करूंगा। जैसा की मैंने कहीं दूसरी जगह लिखा है कि अपने वर्तमान स्वरूप में न्याय योजना संभार-तंत्र (लॉजिस्टिक्स) के लिहाज से बहुत महत्वाकांक्षी है। उस पर विस्तार से चर्चा करने के पहले स्पष्टता की कमी पर ध्यान आकर्षित करना जरूरी है कि न्याय के तहत आय संबंधी अंतरणों की विचारित प्रकृति निश्चित रूप से क्या है। आरंभ में हमें समझाया गया था कि 6,000 रु. से कम मासिक आय वाले सबसे गरीब 20 प्रतिशत परिवारों को 6,000 रु. के हिसाब से रकम दी जाएगी जबकि 6,000 रु. से 12,000 रु. के बीच आय वाले परिवारों की टॉप-अप के जरिए आय बढ़ाकर 12,000 रु. कर दी जाएगी। बाद में स्पष्ट किया गया कि सबसे गरीब 20 प्रतिशत परिवार 6,000 रु. प्रति माह (अर्थात 72,000 रु. प्रति वर्ष) की दर से अंतरण पाने के हकदार होंगे। अंतरण की इस योजना के साथ एक समस्या है: 11,999 रु. मासिक आय वाला कोई पात्र परिवार 6,000 रु. का अंतरण पाने का हकदार होगा जिसके बाद उसकी आय 17,999 रु., या कहें कि 18,000 रु. हो जाएगी। दूसरी ओर, 12,000 रु. मासिक आय वाले अपात्र परिवार की आय 12,000 रु. ही रह जाएगी। अंतरण के पूर्व वस्तुतः एक जैसी आय वाले दो परिवारों के बीच अंतरण के बाद आय में भारी बदलाव आ जाएगा। यह ‘क्षैतिक समानता’ के सिद्धांत का गंभीर उल्लंघन है। ऐसा लगता है कि न्याय की आरंभिक ‘टॉप-अप’ योजना में जिस लक्ष्यीकरण की बात की गई है उसके ऊपर संदेहवाद पर 6,000 रु. का अंतरण एक थोड़ा झटकेदार उत्तर था। लेकिन यह उत्तर स्पष्टतः अव्यवहार्य है, और ऐसा लगता है कि मूल ‘टॉप-अप’ योजना ही यहाँ लागू होता है ।
लेकिन ‘टॉप-अप’ के तहत लक्ष्यीकरण की गंभीर समस्या आती है। हमें सबसे गरीब 20 प्रतिशत परिवारों की ही नहीं, उनके अंदर के 6,000 रु. से कम आय वाले और 6,000 रु. से 12,000 रु. के बीच आय वाले परिवारों की भी पहचान करने की जरूरत होगी ताकि टॉप-अप देकर उनकी आय 12,000 रु. तक पहुंचाई जा सके। इसके कारण होने वाले ‘प्रतिकूल चयन’ (एडवर्स सिलेक्शन) की समस्याओं, और योजना के लाभों से गलत तरीके से वंचित किए लोगों द्वारा व्यक्त की जाने वाली अन्याय की भावनाओं को दरकिनार कर देना निष्क्रिय होगा। इसी कारण मैं बता रहा हूं कि ‘न्याय’ योजना लॉजिस्टिक्स के लिहाज से अत्यंत महत्वाकांक्षी’ है।
राजकोषीय रूप से अधिक महत्वकांक्षी कार्यक्रम जिसमें प्रत्येक परिवार छोटी रकम का अंतरण पाने का हकदार हो, लॉजिस्टिक्स के लिहाज से काफी कम महत्वाकांक्षी होगा। यही कारण है कि अभी ‘न्याय’ के तहत विचारित आंशिक और लक्षित ढंग की योजना के बजाय मैं वास्तविक यूबीआइ पसंद करूंगा। प्रश्न 4 के उत्तर में कुछ अधिक विस्तार से उल्लेख किया गया है।
प्र. 4. क्या आपको इस अतिरिक्त व्यय के राजकोषीय बोझ को लेकर कोई चिंता लगती है? क्या आपको लगता है कि न्याय को समायोजित करने के लिए करों की वर्तमान दरों को बदलना होगा या वर्तमान सब्सिडियों को समाप्त करना होगा?
यह प्रश्न कई तरह से ‘विशेषज्ञों’ और आम लोगों, दोनो के द्वारा सबसे व्यापक तौर पर महत्वपूर्ण माना जाने वाला लगता है, और अभी तक इसी पर विशेष तौर पर सबसे कम काम किया गया है। रूढ़िवादी टिप्पणीकारों ने आय सहायता योजना को समायोजित करने के लिए व्यय में कमी का समर्थन किया है – कभी-कभी तो नकद आय अंतरण योजना के साथ सभी मौजूदा कल्याणकारी योजनाओं के प्रतिस्थापन की मांग की हद तक, और वह भी इस बात पर विस्तार में गए बिना कि वर्तमान खाद्य सुरक्षा और रोजगार गारंटी योजनाओं को हटाने की क्षतिपूर्ति के लिए प्रति व्यक्ति कितनी आय सहायता पर्याप्त होनी चाहिए। उक्त प्रश्न 4 नीचे के प्रश्न 9 से सीधा संबंधित है जिसमें भय व्यक्त किया गया है कि आय सहायता योजना राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा योजना और मनरेगा जैसी योजनाओं को कमजोर या बर्बाद करने के लिए ‘ट्रॉजन हॉर्स’ में भी बदल सकती है। मेरी राय में यह आकस्मिकता आय सहायता योजना के विचार को लोगों के साथ धोखाधड़ी में बदल देगी।
हमलोगों को हमेशा पढ़ाया गया था कि बजट में राजकोषीय अंसतुलन (क) व्यय में कमी, या (ख) राजस्व में वृद्धि, या (ग) दोनों के संयोजन से संशोधित किया जा सकता है। विस्तार के लिहाज से देखें, तो मामूली गणना करके भी मेकैनिज्म (ख) पर काम करने के प्रति कुछ सामान्य अनिच्छा महसूस की जा सकती है। दक्षिण(पंथियों) की ओर से ऐसी अनिच्छा का स्पष्टीकरण देने की शायद ही जरूरत होती है। लेकिन वाम(पंथियों) का ओर से व्यक्त अनिच्छा अधिक जटिल होती है, और संभवतः ‘उतावलापन’, ‘विवेकहीन कल्पना’, ‘अयथार्थवाद’, ‘राजनीतिक संभाव्यता के प्रति विस्मरणशीलता’ आदि की अनुमानित आलोचनाओं के प्रति असुरक्षा से संबंधित होती है।
जो भी हो, यह बात अपरिहार्य लगती है कि हमें बढ़े कराधान के सवाल पर, और किस हद तक वृद्धि वांछित है, इसकी संभावना के कुछ अनुमान पर सीधा काम करना चाहिए। यहां हाल ही में इंडियन एक्सप्रेस के एक आलेख में इस विषय पर प्रताप भानु मेहता के द्वारा व्यक्त भावनाओं के प्रति सहानुभूति नहीं होना मुश्किल है: ‘राजनीतिक रूप से जिस विचार को व्यक्त करना मुश्किल है, वह यह है कि भारत में करों को बढ़ाने की जरूरत है। करों की दरें तर्कसंगत होनी चाहिए। इस बुनियादी तथ्य से बचा नहीं जा सकता है। लेकिन यह आपको हमारे समाज में सत्ता की गहरी विषमता के बारे में कुछ बताता है कि इस यथार्थ को कहा भी नहीं जा सकता है। जाहिर तौर पर गरीबों के हाथों में सीमांत नकद राशि का पहुंचना उन्हें बर्बाद कर देगा। लेकिन उन संदर्भों में जहां इस बात की कल्पना भी मुश्किल है कि आय का सीमांत मान क्या होता है, करों में थोड़ी छेड़छाड़ भी स्पष्टतः आर्थिक तबाही ला देगी।’
मूर्खतापूर्ण हैं या नहीं हैं इसे दरकिनार करके यहां पर कुछ गणनाएं पेश हैं। कल्पना करें कि हर भारतीय नागरिक के लिए 10,000 रु. प्रति वर्ष की यूबीआइ गारंटी योजना उपलब्ध है। बहुत गरीब लोगों के लिए यह कम रकम नही है। और संपन्न लोगों के लिए यह अगर कम है, तो उनसे इस अंतरण को स्वेच्छा से छोड़ देने का आह्वान किया जा सकता है। 1.35 अरब आबादी के लिए वार्षिक आय गारंटी का बिल कोई 135 खरब रु. होना चाहिए। भारत का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) लगभग 2,000 खरब रु. है जिससे यह रकम सकल घरेलू उत्पाद का 6.8 प्रतिशत होती है। समय के साथ, मुद्रास्फीति और जनसंख्या वृद्धि के कारण अंश (न्यूमरेटर) बढ़ेगा, लेकिन मुद्रास्फीति और प्रति व्यक्ति आय बढ़ने के कारण हर (डिनॉमिनेटर) भी बढ़ेगा। अंश और हर, दोनो में वृद्धि को समान अनुपात में मानने पर देबराज रे के शब्दों में मूल आय का हिस्सा (बेसिक इनकम शेयर) समय के साथ लगभग 6.8 प्रतिशत रहेगा। अगर हम यह भी कहें कि हमें शिक्षा और स्वास्थ्य पर सकल घरेलू उत्पाद के 4 प्रतिशत के बराबर अतिरिक्त रकम खर्च करने की जरूरत है तो समाज कल्याण पर वर्धित बिल सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 11 प्रतिशत हो जाता है।
भारत में कर के साथ सकल घरेलू उत्पाद का अनुपात 17 प्रतिशत है और यह दुनिया के सबसे कम कर वाले देशों में से एक है। जिस सवाल पर प्रत्यक्षतः काम करने की जरूरत है, वह है कि: क्या कर-जीडीपी अनुपात को 17 प्रतिशत से बढ़ाकर 28 प्रतिशत करना कोई पागलपन भरा सुझाव है? मैं तो कहूंगा कि यह सवाल मुख्य रूप से राजनीतिक दलों के जवाब देने के लिए है। पेशेवर अर्थशास्त्रियों के रूप में हम इस प्रश्न का उत्तर देने की आवश्यकता से उन्हें क्यों बचाएं?
ऐसा लगता है कि ‘छोड़ दिया गया राजस्व’ (रेवेन्यू फॉरगॉन) अर्थात प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों के मामले में दी जाने वाली छूट और माफी, जो मुख्यतः व्यवसायियों और कॉर्पोरेट घरानों के हित में जाती हैं, सकल घरेलू उत्पाद के 6 प्रतिशत के बराबर हो सकती है। 10 अरब रु. से अधिक नेट वर्थ वाली इकाइयों के हारून रिच इंडेक्स में उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार, और यह मानकर कि इस समूह की संपत्ति न्यूनतम 10 प्रतिशत की वार्षिक दर से बढ़ती है, सबसे संपन्न 831 इकाइयों की संयुक्त संपत्ति को अभी के स्तर पर कैप करने के लिए 10 प्रतिशत संपत्ति कर लगाया जाय, तो सकल घरेलू उत्पाद के 2 प्रतिशत से अधिक रकम प्राप्त हो सकती है। और अगर सबसे संपन्न 1,00,000 परिवारों पर कर लगाया जाय, तो क्या होगा? निश्चित तौर पर सबसे गरीब 5 करोड़ परिवारों के बजाय 1,00,000 सबसे संपन्न परिवारों को लक्षित करना आसान होगा?! और उत्तराधिकार कर, तथा कृषि-व्यवसाय कर लगाने और कॉर्पोरेट कर की दर बढ़ाने के बारे में क्या कहना है? क्या हमेशा मौजूद रहे इस अफवाह का उल्लेख करने की जरूरत नहीं है कि व्यवस्था में बड़ी मात्रा में काला धन मौजूद है? सारी चीजों पर विचार करने पर बढ़े कराधान से सकल घरेलू उत्पाद के 11 प्रतिशत के बराबर व्यय पूरा करने का गणित अकरणीय नहीं लगता है।
क्या यह सनक भरा सुझाव है? मैं यह प्रश्न कुछ वास्तविक छानबीन की भावना से पूछ रहा हूं। जब तक हम स्पष्ट और सार्वजनिक रूप से प्रश्न उठाने के लिए तैयार नहीं हैं, और इसका स्पष्टता से और सार्वजनिक रूप से उत्तर देने का साहस नहीं करते हैं, तब तक हम ऐसे पूर्वनिर्धारित और अलिखित वक्तव्य के सामने झुक जाने का जोखिम ले रहे हैं जिसमें मुद्दे उठाने का निषेध किया गया है।
प्र. 5. आप ऐसे लोगों को क्या कहेंगे जो इस बात से चिंतित है कि नकद के प्रवाह से डिमांड बढ़ जाएगी लेकिन सप्लाई नहीं जिससे कीमतों में वृद्धि होगी?
लोगों, खास कर गरीबों के हाथ में क्रय शक्ति देकर समग्र मांग बढ़ाने वाले किसी भी राजकोषीय प्रोत्साहन (फिस्कल स्टिमुलस) का परिणाम कुछ समय के लिए मुद्रास्फीति के बतौर होने की आशा की जानी चाहिए जिससे मुद्रास्फीति को लक्षित और ब्याज दर का प्रबंधन करने वाली मौद्रिक नीति के जरिए निपटना पड़ सकता है।
प्र. 6. केंद्र सरकार की वर्तमान सब्सिडियों में से कौन-कौन अनावश्यक हैं और समाप्त करने के लिहाज से विचारणीय हैं?
प्रश्न 4 का उत्तर देखें।
प्र. 7. सबसे निचली 20 प्रतिशत आबादी को लक्षित करना विशाल कार्य लगता है। इसके लिए सरकार किन आंकड़ों का उपयोग कर सकती है? आप किस प्रकार के टार्गेटिंग मैकेनिज्म का सुझाव देंगे?
मैंने पहले भी कहा है कि सफल लक्ष्यीकरण के बारे में मेरे मन में बहुत संदेह है। यह सचमुच की बहुत कठिन कार्य है इसीलिए प्रश्न 4 के उत्तर में मैंने सर्वव्यापी (यूनिवर्सल) योजना जैसी चीज के बारे में कहा है जिससे ‘प्रतिकूल चयन’ की समस्या दूर होने की आशा की जा सकती है।
प्र. 8. प्रस्तावित योजना आबादी के अच्छे-खासे हिस्से को विकृत प्रोत्साहन (परवर्स इंसेंटिव्स) देने के लिए बाध्य है। वे लोग यह दर्शाने की कोशिश करेंगे कि वे अपनी वास्तविक स्थिति से काफी अधिक गरीब हैं या इसकी पात्रता हासिल करने के लिए वे अपनी आमदनी को कम करके दिखाने की कोशिश करेंगे। आप योजना का निर्माण कैसे करेंगे कि इस स्वाभाविक समस्या के कारण कम से कम नुकसान हो?
इसके लिए भी सर्वव्यापीकरण।
प्र. 9. आप यह कैसे सुनिश्चित करेंगे कि यह योजना राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (नैशनल फ़ूड सिक्योरिटी एक्ट (एनएफएसए)) या महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) जैसी वर्तमान योजनाओं को कमजोर या बर्बाद करने के लिहाज से ट्रोजन हॉर्स नहीं बन जाएगी?
ट्रोजन होर्स पैदा करने वाली नीति के खिलाफ ठोस, एकीकृत, और आग्रही गुट प्रस्तुत करने के लिए अन्य समाजविज्ञानियों से अपील करके!
प्र. 10. वर्तमान गरीबी निवारण योजनाओं में मौजूद कमियां सरकार की कमजोर क्षमता की उपज हैं। क्या ‘न्याय’ योजना भी इस समस्या से पीडि़त नहीं होगी?
इसकी बहुत आशंका है। लेकिन ‘इसलिए कल्याण कार्यक्रमों को समाप्त करो’ का नारा सतही, धृष्टतापूर्ण, और अक्खड़ नारा है, जिसके लिए इन कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में अधिक कुशल और कम भ्रष्ट आचरणों के लिए राज्य की जवाबदेही की दृढ़तापूर्वक मांग के बजाय काफी कम टिकाऊ प्रयास करने की जरूरत पड़ती है।

































































