आईडीएफसी इंस्टिट्यूट के रिसर्च डायरेक्टर और सीनियर फेलो निरंजन राजाध्यक्ष का तर्क है कि न्याय की अनुमानित लागत काफी है और योजना के राजकोषीय बोझ के बारे में चिंतित होने के पर्याप्त कारण हैं। इसके अलावा, अर्थव्यवस्था में नकद प्रवाह के कारण मध्यावधि में मुद्रास्फीति बढ़ सकती है और उसके कारण अंतरण के वास्तविक आय संबंधी लाभ कम हो सकते हैं।
प्र: क्या आपको इस अतिरिक्त व्यय के राजकोषीय बोझ को लेकर कोई चिंता लगती है? क्या आपको लगता है कि न्याय को समायोजित करने के लिए करों की वर्तमान दरों को बदलना होगा या वर्तमान सब्सिडियों को समाप्त करना होगा?
न्याय की अनुमानित लागत काफी अधिक है – 36 खरब रुपए प्रति वर्ष। यह फरवरी 2019 में प्रस्तुत अंतरिम बजट में मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना) के लिए किए गए आबंटन का मोटे तौर पर छह गुना होगा। यह वित्तवर्ष 2020 में केंद्र सरकार के कुल व्यय के भी लगभग 13 प्रतिशत के बराबर है। यह देखना मुश्किल है कि इतने अधिक बढ़ते हुए व्यय वाले कार्यक्रम का वित्तपोषण गैर-मेरिट सब्सिडियों सहित व्यय के अन्य शीर्षों में कटौती करके ही कैसे किया जा सकता है। यह देखते हुए कि गैर-मेरिट सब्सिडियों से अधिकांशतः मुखर हित समूहों को लाभ पहुंचता है, राजनीतिक अर्थव्यवस्था के लिहाज से यह बहुत कठिन निर्णय होगा। अतः इसके लिए या तो राजकोषीय विस्तार करना होगा या कर संग्रहण बढ़ाना होगा। कर संग्रहण बढ़ाने के लिए करों की दर बढ़ानी पड़ सकती है लेकिन जरूरी नहीं है कि ऐसा करना ही पड़े। भारत ऐसे मोड़ पर हो सकता है जिसमें कर-जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) अनुपात तेजी से बढ़ने लगता है, लेकिन कठोर सच्चाई के बजाय यह अनुमान ही है। संक्षेप में, न्याय के राजकोषीय बोझ के बारे में चिंतित होने के ढेर सारे कारण मौजूद हैं।
प्र: आप ऐसे लोगों को क्या कहेंगे जो इस बात से चिंतित है कि नकद के प्रवाह से डिमांड बढ़ जाएगी लेकिन सप्लाई नहीं जिससे कीमतों में वृद्धि होगी?
मुद्रास्फीति के जोखिम को खारिज नहीं किया जा सकता है। अगर न्याय राजकोषीय रूप से तटस्थ हो, तो आदर्श स्थिति में सामान्य मूल्य स्तर पर कोई प्रभाव नहीं होना चाहिए क्योंकि पूरी मांग (एग्रीगेट डिमांड) में कोई बदलाव नहीं होगा। लेकिन वास्तविकता अधिक जटिल है। उपभोग करने के लिए उच्च सीमांत प्रवृत्ति वाले गरीब परिवारों को मुद्रा का अंतरण होने के कारण मूल उपभोग के सामान के मूल्य पर दबाव बन सकता है, खास कर तब जब सप्लाई साइड का गैर-लचीलापन (रिजिडिटी) विचारणीय हो। यह उन क्षेत्रों में खास तौर पर सही है जहां स्थानीय बाजार राष्ट्रीय बाजारों से अच्छी तरह जुड़े हुए नहीं हैं। एक तर्क यह है कि न्याय आंशिक रूप से स्व-वित्त पोषित हो सकता है क्योंकि इसके कारण खपत बढ़ेगी। लेकिन यह याद रखना जरूरी है कि मूल उपभोग की अधिकांश चीजों पर वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) प्रणाली के तहत या तो कर लगता नहीं है या लगता भी है तो बहुत कम। अभी तक खाद्य पदार्थों के मामले में ढांचागत अधिशेष को देखते हुए तत्काल जोखिम नहीं लग रहा है। लेकिन मध्यावधि में उच्च मुद्रास्फीति का भी यह अर्थ है कि न्याय के वास्तविक आय संबंधी लाभ धीरे-धीरे घट जाएंगे।
प्र: सबसे निचली 20 प्रतिशत आबादी को लक्षित करना विशाल कार्य लगता है। इसके लिए सरकार किन आंकड़ों का उपयोग कर सकती है? आप किस प्रकार के टार्गेटिंग मैकेनिज्म का सुझाव देंगे?
भारत में अधिकांश आर्थिक गतिविधियों की अनौपचारिक प्रकृति और सरकार की क्षमता की कमी को देखते हुए लक्ष्यीकरण (टार्गेटिंग) निस्संदेह अत्यंत कठिन कार्य हो जाएगा। अतिरिक्त समस्या यह है कि पहचान करने की चुनौती गतिशील होती है। गरीबों की आय बहुत अस्थिर होती है, और वर्षा या स्वास्थ्य संबंधी झटकों के कारण लाखों लोग गरीबी रेखा के नीचे चले जाते हैं। इसलिए सबसे गरीब 5 करोड़ परिवारों की पहचान करने का सवाल किसी एक खास समय का न होकर हर साल का है। कोई जरूरी नहीं है कि वही 5 करोड़ परिवार सबसे निचले 20 प्रतिशत खाने में पूरे समय के लिए रहें। जैम त्रयी (जन धन योजना, आधार और मोबाइल नंबर) के कारण वितरण की समस्या कम चुनौतीपूर्ण होगी। जैसा कि अरविंद सुब्रमनियन ने सुझाव दिया था सभी परिवारों को आय संबंधी सहायता देना और उसके बाद संपत्ति के स्वामित्व के आधार पर बाहर करना अधिक समझदारी की बात है। अगर कवरेज बढ़ाना है, तो प्रति परिवार आय संबंधी सहायता अनिवार्यतः काफी कम हो जाएगी। इस मामले में मनरेगा की स्व-लक्ष्यकारी (सेल्फ-टार्गेटिंग) डिजाइन को यहां दुहराया नहीं जा सकता है।
प्र: प्रस्तावित योजना आबादी के अच्छे-खासे हिस्से को विकृत प्रोत्साहन (परवर्स इंसेंटिव्स) देने के लिए बाध्य है। वे लोग यह दर्शाने की कोशिश करेंगे कि वे अपनी वास्तविक स्थिति से काफी अधिक गरीब हैं या इसकी पात्रता हासिल करने के लिए वे अपनी आमदनी को कम करके दिखाने की कोशिश करेंगे। आप योजना का निर्माण कैसे करेंगे कि इस स्वाभाविक समस्या के कारण कम से कम नुकसान हो?
प्रोत्साहन सम्बन्धी अधिक गंभीर समस्या यह होगी कि कहीं बिना शर्त नकद अंतरणों के कारण लोग श्रम-शक्ति से हट तो नहीं जाएंगे। मेरे कहने का नकारात्मक आशय नहीं है कि गरीब लोग आलसी होते हैं। इस बात के प्रचुर प्रमाण हैं कि ऐसा मामला नहीं है। लेकिन मुख्यधारा का अर्थशास्त्र हमें बताता है कि जब अधिक आय स्तरों पर लोग फुरसत या खाली समय को महत्व देने लगते हैं, तो श्रमिक सप्लाई का कर्व पीछे की ओर झुक जाता है। इस बात के अधिक व्यवहारिक प्रमाण हैं कि हाल के वर्षों में जबसे पारिवारिक आय बढ़ गई है, तबसे महिलाएं श्रम बल से हट गई हैं – या अधिक संभावना है कि उन्हें हटने के लिए बाध्य किया गया। दूसरी ओर, अभिजित बनर्जी और उनके सह-लेखकों ने हाल के एक आलेख में दर्शाया है कि श्रमिकों की सप्लाई पर नकद अंतरण का कोई महत्वपूर्ण प्रभाव नहीं पड़ता है। लेकिन उन्होंने जिन 70 देशों की केस स्टडी पर विचार किया है, वहां रकम और प्रति व्यक्ति आय के प्रतिशत के बतौर काफी कम नकद अंतरण हुआ है। न्याय के तहत राष्ट्रीय प्रति व्यक्ति आय की लगभग 40 प्रतिशत रकम के वार्षिक अंतरण का वादा किया गया है, जो प्रोत्साहनों को बदलने के लिहाज से काफी बड़ा हस्तक्षेप है। श्रम बाजारों पर इसका सकारात्मक प्रभाव यह हो सकता है कि आय संबंधी अनिश्चितता में कमी गरीब परिवारों को मानव पूंजी तथा नई गतिविधियों में निवेश करने की गुंजाइश देगी क्योंकि एहतियाती बचत रखने की जरूरत घट जाएगी। अतः सामान्य साम्यावस्था संबंधी प्रभाव जटिल होंगे।
प्र: क्या आपकी समझ में इसके बजाय धनराशि का उपयोग सार्वजनिक शिक्षा और स्वास्थ्य संबंधी वर्तमान सेवाओं में सुधार के लिए किया जाय तो उसका बेहतर उपयोग होगा? या हमने सार्वजनिक शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा प्रदान को कार्यशील बनाने का प्रयास छोड़ दिया है?
रथिन राय ने तर्क दिया है कि भारत विकासमूलक देश से क्षतिपूरक देश की दिशा में जा सकता है। सरकार को बाजार-आधारित अर्थव्यवस्था में भी सार्वजनिक वस्तुओं की उपलब्धता में भूमिका निभानी होती है, और बुनियादी आय सबंधी सहायता देकर सार्वजनिक वस्तुओं के लिए होने वाले वित्तपोषण को कम नहीं करदेना चाहिए। फील्ड पर होने वालो अध्ययनों में इस बात के भी कुछ प्रमाण मिले हैं कि गरीब परिवार नकद अंतरण की जगह स्वास्थ्य और शिक्षा सेवाएं अधिक पसंद करते हैं। हालांकि यह भी संभव है कि इन नागरिकों की पसंद इस लिहाज से अंतर्जात (एंडोजेनस) हो कि कल्याण के पिछले लक्षित कार्यक्रमों की असफलता के कारण उनमें उनके सभी स्वरूपों के प्रति अविश्वास पैदा हो गया हो।

































































