बदलती दुनिया में ‘भविष्य की नौकरियों’ के लिए योजना

26 June 2025
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जलवायु परिवर्तन, बढ़ता हुआ स्वचालन तंत्र और वैश्विक आर्थिक नीतियों जैसे बाहरी कारक आने वाले वर्षों में भारत के रोज़गार के परिदृश्य को निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। गत माह अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक दिवस के अवसर पर, आई4आई की उप-प्रबंध संपादक निकिता मजूमदार ने श्रमिकों की भलाई और उत्पादकता सुनिश्चित करने तथा भविष्य में सुरक्षित नौकरियों तक समान पहुँच सुनिश्चित करने के लिए इन चुनौतियों के समाधान पर कुछ शोध सारांश प्रस्तुत किया था, जिसे आज यहाँ दिया जा रहा है।

सेवा क्षेत्र के तीव्र विकास से भारतीय अर्थव्यवस्था में संरचनात्मक परिवर्तन आया है। सेवा क्षेत्र का वर्धित सकल मूल्य यानी जीवीए में योगदान 1980 के दशक के 30% से बढ़कर वित्त वर्ष 2024-25 में 55% हो गया है। हालांकि इससे आर्थिक विकास को बढ़ावा मिला है, सभी श्रमिकों को इसका लाभ नहीं मिल पाया है। भारत में आज भी कृषि क्षेत्र सबसे बड़ा नियोक्ता बना हुआ है जिसमें देश के कार्यबल का एक बड़ा हिस्सा अभी भी कम उत्पादकता वाली गतिविधियों में जुटा हुआ है। पिछले चार दशकों में कृषि रोज़गार का हिस्सा कम अवश्य हुआ है, लेकिन विनिर्माण से जुड़ा रोज़गार कमोबेश स्थिर रहा है। भारत के श्रम बाज़ार को प्रभावित करने वाले अन्य कारकों में कौशल तक पहुँच की कमी, कड़े नियम और खराब सामाजिक सुरक्षा शामिल हैं। परिणामस्वरूप, अनेक कम-कुशल और ग्रामीण श्रमिक स्वयं को उत्पादक व औपचारिक रोज़गार के अवसरों से वंचित पाते हैं।

श्रम-बाज़ार की यह चुनौती कुछ बाहरी कारकों से और भी जटिल हो जाती है। जैसे कि तापमान में वृद्धि और मौसम की चरम घटनाएँ जिनसे श्रमिकों की उत्पादकता और आमदनी खतरे में पड़ जाती हैं, स्वचालन तंत्र यानी ऑटोमेशन के तेज़ी से एकीकरण से होने वाला तकनीकी विस्थापन और उच्च-कुशल प्रवास को प्रभावित करने वाली विदेश नीतियाँ आदि। भविष्य के लिए सुरक्षित नौकरियों के सृजन के लिए इन कारकों के अभिनव समाधान और इनके सम्बन्ध में गतिशील नीतियों की आवश्यकता होती है।

कार्यस्थलों और कार्यबल को जलवायु परिवर्तन के अनुकूल बनाना

पिछले कुछ दशकों में भारत में औसत तापमान में वृद्धि हुई है। साथ ही, गर्मी की लहरों और सामान्य से अधिक तापमान वाले दिन भी लगातार बढ़ रहे हैं। 2024 की यूनेस्कैप (यूएनईएससीएपी) रिपोर्ट से पता चलता है कि स्वास्थ्य व जीवन कि परिस्थितियों को प्रभावित करने के अलावा, भारत में 2030 तक बढ़ते तापमान के कारण लगभग 5.8% दैनिक कार्य घंटों का नुकसान होने की उम्मीद है, जिसमें कृषि और निर्माण क्षेत्रों के श्रमिकों को सबसे अधिक नुकसान उठाना पड़ सकता है। यह अग्रवाल (2024) में निष्कर्षों के अनुरूप हैं, जिनके अनुसार जलवायु के चरम झटके ग्रामीण औद्योगिक श्रमिकों को असमान रूप से प्रभावित करते हैं, जो 2-21% की सीमा में खपत के नुकसान का अनुभव करते हैं।

2024 में संपन्न इंडिया सस्टेनेबल ग्रोथ कॉन्फ्रेंस में अपनी प्रस्तुति में ई. सोमनाथन ने भी दर्शाया था कि अत्यधिक गर्मी विनिर्माण क्षेत्र के श्रमिकों की उत्पादकता को भी कम करती है। गर्मी और खराब स्वास्थ्य के कारण अनौपचारिक श्रमिकों के कार्यदिवसों में कमी आने से उनकी आय में साल में कम से कम एक महीने की कमी आती है।

इस समस्या से होने वाली हानि से कुछ हद तक निपटने के लिए प्रौद्योगिकी का लाभ उठाया जा सकता है। अध्वर्यु एवं अन्य (2023) द्वारा किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि फर्मों द्वारा शमन प्रयास, जैसे कि शीतलन प्रौद्योगिकी और एलईडी लाइटिंग जैसी ऊर्जा-बचत विधियों को अपनाना आदि गर्म दिनों में तापमान के नकारात्मक प्रभाव को 85% तक कम कर सकते हैं। इन उपायों से कारखानों में काम करने के लिए अनुकूल माहौल बनाने में मदद मिलती है। इसी तरह बाहरी कार्यों के लिए, कस्टर एवं अन्य (2021) ने पाया कि ऐसी तकनीक जो श्रमिकों के संज्ञानात्मक बोझ को कम करती है, जैसे कि क्षेत्र में डेटा एकत्र करने के लिए टैबलेट कंप्यूटर का उपयोग करना, गर्मी से होने वाली उत्पादकता की हानि को कम कर सकती है।

जलवायु परिवर्तन के अनुकूलन के प्रयासों से न केवल बदलाव के झटकों के शमन बल्कि रोज़गार सृजन में भी मदद मिल सकती है। वर्ल्ड इकनोमिक फोरम के श्वेत पत्र (2021) में दिए गए अनुमान के अनुसार भारत के नेट-ज़ीरो की ओर बढ़ने से 5 करोड़ से ज़्यादा नौकरियाँ पैदा होने की संभावना है। आई4आई में प्रकाशित अपने एक आलेख में, मसूद और सबरवाल (2024) इस दिशा में हो रही प्रगति का एक उदाहरण साझा करते हैं- भारत की स्किल काउंसिल फॉर ग्रीन जॉब्स (एससीजीजे) ने राष्ट्रीय स्तर पर 44 स्वीकृत योग्यताएँ विकसित की हैं, 5,00,000 से ज़्यादा उम्मीदवारों को प्रशिक्षित किया है (जिनमें से 1,00,000 से अधिक नवीकरणीय ऊर्जा क्षेत्र में हैं) और एक ई-लर्निंग प्रणाली बनाई है जिसके ज़रिए स्वच्छ ऊर्जा पहलों की दिशा में काम करने वाले 4,000 से ज़्यादा लोगों को 'वर्चुअल' प्रशिक्षण दिया गया है। इसी तरह, नेशनल ग्रीन हाइड्रोजन मिशन का लक्ष्य वर्ष 2030 तक 6,00,000 नौकरियाँ पैदा करना है।

दूसरी ओर, चंद्रा एवं अन्य (2023) ने पाया कि गहन जीवाश्म ईंधन उपयोग क्षेत्रों को चरणबद्ध तरीके से बंद करने से बेरोज़गारी बढ़ने का भी जोखिम है। भारत में कोयला उद्योग लगभग 12 लाख लोगों को रोज़गार देता है और अप्रत्यक्ष रूप से संबद्ध क्षेत्रों में और 1 करोड़ 30 लाख नौकरियों का पोषण करता है। आईजीसी ब्लॉग में भी, ओलिवेरा-कुन्हा (2022) ने नए श्रम बाज़ार के अवसरों तक समान पहुँच सुनिश्चित करने के महत्व पर प्रकाश डाला है, खासकर कम कुशल श्रमिकों के लिए, जिनके पर्यावरणीय नियमों के कड़े होने के कारण विस्थापित होने की अधिक संभावना है। कौशल अंतर को कम करने के लिए कार्रवाई करने का यह आह्वान मसूद और सबरवाल द्वारा भी दोहराया गया है, जो हरित संक्रमण को आगे बढ़ाने में मदद करने के लिए सीखने और कौशल बढ़ाने की आवश्यकता पर जोर देते हैं।

स्वचालन और एआई से बचाव और सुरक्षा

कम कुशल कर्मचारी श्रम बाज़ार में एक और खतरे के प्रति संवेदनशील हैं। यह है बढ़ते स्वचालन तंत्र और कृत्रिम बुद्धिमत्ता यानी एआई पर निर्भरता से होने वाला विस्थापन। देव और कथूरिया (2025) द्वारा किए गए एक शोध में पाया गया है कि सभी क्षेत्रों में कम कुशल श्रमिकों की हिस्सेदारी में लगातार गिरावट आई है, जबकि अधिक कुशल समकक्ष इस अंतर को भर रहे हैं। उधर, कोपस्टेक एवं अन्य (2022) बताते हैं कि दुनिया भर में एआई कौशल की बढ़ती मांग ने गैर-एआई भूमिकाओं की वृद्धि को नकारात्मक रूप से प्रभावित किया है, विशेष रूप से प्रबंधकों और पेशेवरों जैसे उच्च-कुशल व्यवसायों के क्षेत्र में।

एक पियर्सन रिपोर्ट के अनुसार भारत में कौशल की कमी को पूरा करने के लिए 16.2 मिलियन श्रमिकों को एआई और स्वचालन प्रणालियों में 'अपस्किल' करने की ज़रूरत पड़ेगी। गुप्ता (2024) ने इस निष्कर्ष का समर्थन किया है और दर्शाया है कि भारत में उच्च उत्पादकता सेवा उद्योग में काम करने के लिए पर्याप्त रूप से योग्य व्यक्तियों की कमी है- इन क्षेत्रों में तकनीकी रूप से कुशल महिलाओं के कम प्रतिनिधित्व से यह कमी और भी बढ़ जाती है। उनके तथा हो एवं अन्य (2024) द्वारा किए गए एक अध्ययन के निष्कर्ष भी महिलाओं को आईसीटी (सूचना और संचार प्रौद्योगिकी) सेवाओं और ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म पर डेटा एंट्री जैसी डिजिटल नौकरियों में काम करने के अवसर प्रदान करने के सकारात्मक बाहरी प्रभाव को सामने लाते हैं। ये महिलाओं को घर से काम करने और/या घरेलू और देखभाल संबंधी ज़िम्मेदारियों को समायोजित करने के लिए अपने काम के घंटे चुनने में अधिक लचीलापन प्रदान करते हैं।

डिजिटल श्रम बाज़ार का विस्तार महिलाओं के लिए वरदान साबित हुआ है, लेकिन इसके कुछ अनपेक्षित परिणाम भी हो सकते हैं। शोध अध्ययनों में पाया गया है कि एआई भर्ती उपकरण आवेदक की जानकारी की जांच करते हुए महत्वपूर्ण लिंग पूर्वाग्रह प्रदर्शित करते हैं। चतुर्वेदी एवं अन्य (2025) द्वारा किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि नियोक्ता नौकरी के आवेदनों में निहित संकेतों (जैसे लिंग संबंधी शब्द) का भी उपयोग कर सकते हैं, जो योग्य महिलाओं को उच्च वेतन वाली नौकरियों के आवेदन से रोकते हैं। चूंकि अधिक महिलाएं कार्यबल में प्रवेश करना चाहती हैं, भर्तीकर्ताओं और बड़े भाषा मॉडल (एलएलएम) को लिंग संबंधी रूढ़िवादिता को कम करने और अधिक समावेशी भर्ती को प्रोत्साहित करने के लिए प्रशिक्षित करने की आवश्यकता है।

विदेश नीति और श्रम-बाज़ार धारणाएँ

भारत में उच्च कौशल वाले सेवा क्षेत्र की वृद्धि अन्य देशों, विशेष रूप से अमेरिका के विदेश नीति निर्णयों द्वारा भी आकार लेती है। भारत के आधे से अधिक सॉफ्टवेयर निर्यात अमेरिका को जाते हैं, जिससे यह क्षेत्र अमेरिकी आर्थिक नीतियों और बाज़ार की गतिशीलता के प्रति अत्यधिक संवेदनशील हो जाता है। 2017 में, खन्ना और मोरालेस (2017) ने पाया कि एच1-बी वीज़ा के तहत अमेरिका जाने की संभावना ने भारतीय श्रमिकों को कंप्यूटर विज्ञान कौशल हासिल करने के लिए प्रोत्साहित किया। चूंकि वीज़ा की संख्या सीमित कर दी गई थी इसलिए जो श्रमिक प्रवास करने में विफल रहे, साथ ही विदेश से लौटे लोगों ने भारत में तकनीकी कार्यबल का विस्तार करने में योगदान दिया।

अमेरिका की आव्रजन नीतियों ने हमेशा भारत से श्रमिकों के प्रवाह को प्रभावित किया है। लेकिन ट्रम्प प्रशासन द्वारा लागू अधिक रूढ़िवादी, अप्रवासी विरोधी नीतियों का क्या प्रभाव हुआ है? राष्ट्रपति ट्रम्प के पहले कार्यकाल के दौरान, घटक (2017) ने तर्क दिया था कि कम वेतन वाले श्रमिकों के लिए एच-1बी वीज़ा पर कार्रवाई और अमेरिकी नागरिकों को काम पर रखने ने, उस समय भारत के आईटी क्षेत्र में छंटनी में भूमिका निभाई। इसके विपरीत, चौरे एवं अन्य (2025) ने पाया कि ट्रम्प के दूसरे कार्यकाल के दौरान आव्रजन नीतियों के बारे में अनिश्चितता बढ़ने से फर्मों ने अमेरिका से नौकरियों को स्थानांतरित कर दिया, जिससे भारत में श्रमिकों की मांग बढ़ गई।

चूंकि भारत का श्रम बाज़ार वैश्विक और घरेलू दोनों ताकतों के प्रति संवेदनशील बना हुआ है, इसलिए मुख्य नीतिगत चुनौती यह सुनिश्चित करना है कि श्रमिकों को प्रशिक्षित और पुनः कुशल बनाया जा सके, ताकि वे उच्च वेतन, उच्च उत्पादकता वाले क्षेत्रों की ओर जा सकें, वे क्षेत्र जो भविष्य की चुनौतियों का सामना कर सकें। साथ ही अच्छी नौकरियों तक पहुँच में मौजूदा असमानताओं को कम किया जा सके और उसे बढ़ने से रोका जा सके।

अंग्रेज़ी के मूल लेख और संदर्भों की सूची के लिए कृपया यहां देखें।

लेखक परिचय :

निकिता मजूमदार आइडियाज़ फॉर इंडिया की डिप्टी मैनेजिंग एडिटर हैं। उन्होंने लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से आर्थिक इतिहास में मास्टर डिग्री और मुंबई के सेंट जेवियर्स कॉलेज से अर्थशास्त्र में स्नातक की डिग्री प्राप्त की है। आई4आई में शामिल होने से पहले, उन्होंने गुड बिज़नेस लैब में उन परियोजनाओं पर काम किया जो श्रम बाज़ार में घर्षण को कम करने और महिला श्रम बल की भागीदारी बढ़ाने पर केंद्रित थीं।

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