प्लास्टिक-प्रदूषण से बिगड़ते हालात को देखकर समुद्री विशेषज्ञों को आशंका है कि वर्ष 2050 तक समुद्र में मछलियों से अधिक प्लास्टिक होगा। इस फील्ड नोट में शिरीष खरे ने गोवा में हो रहे प्लास्टिक-प्रदूषण के समाधान के लिए वहाँ के एक सरकारी विद्यालय के बच्चों द्वारा अपनी शिक्षिकाओं के मार्गदर्शन में शुरू किए गए मूहीम की व्याख्या की है — जिस से वहाँ के लोग और प्रशासन इस मुद्दे को लेकर जागरूक हुए हैं।
आम दिनचर्या में प्लास्टिक के अंधाधुंध उपयोग से होने वाला प्रदूषण और उस से होने वाले नुकसान किसी शहर पर चाहे तेज़ तूफान की तरह नज़र आता है। एक ऐसा तूफान जो पूरी दुनिया को तबाह कर सकता है।
ब्रिटेन के एलन मैकआर्थर फाउंडेशन के अनुसार समुद्री विशेषज्ञों को आशंका है कि वर्ष 2050 तक समुद्र में मछलियों से अधिक प्लास्टिक होगी। दूसरी तरफ, अपने सुंदर समुद्री तटों के कारण पूरी दुनिया के पर्यटकों को लुभाने वाला गोवा राज्य भी प्लास्टिक-कचरे के पहुँच/प्रकोप से अछूता नहीं है। यहां भी यह विकराल रूप में विकसित हो रहा है।
ऐसे में, गोवा की राजधानी, पणजी से करीब 25 किलोमीटर दूर बिचोलिम तहसील के अंतर्गत आने वाली शिरगाव की सरकारी प्राथमिक स्कूल के बच्चों ने एक नई उम्मीद जगाई है। यहां की तीन शिक्षिकाओं ने बच्चों को अपने आसपास के पर्यावरण की सुरक्षा के लिए ऐसा मंत्र दिया है कि बच्चे तो बच्चे, बच्चों के परिजन, फेरीवाले, दुकानदार, पंच-सरपंच से लेकर पूरे के पूरा गांव ही 'प्लास्टिक हटाओ' अभियान में शामिल हो गया है।
इस अभियान की विशेषता यह है कि इसमें पॉलीथीन जैसी चीजों को हटाने की बात तो होती ही है। साथ हीं लोगों को उसके विकल्प भेंट भी किए जाते हैं। यहां के स्कूल के बच्चे और उनके परिजन हर साल हजारों की संख्या में प्लास्टिक-रहित बैग और पैकेट तैयार करते हैं और उन्हें जरुरतमंद लोगों को नि:शुल्क बांटते हैं। यही वजह है कि स्कूल परिसर से शुरु हुआ यह अभियान अब घर, दुकान, मंदिर, सड़क, गली, मोहल्लों और चौराहों से होते हुए सभी सार्वजनिक स्थानों पर अपना प्रभाव दिखा रहा है।
बीते दो वर्षों से जारी यह अभियान अब एक ऐसा मॉडल बन चुका है कि यदि इसी तरह से गोवा का हर स्कूल ऐसा ही प्रयास करे और उन्हें स्थानीय प्रशासन एवं लोगों का साथ मिले तो गोवा को प्लास्टिक-मुक्त बनने में ज्यादा समय नहीं लगेगा।
शिरगाव करीब ढाई हजार की आबादी वाला गांव है। यहां अधिकतर निम्न-मध्यम वर्गीय किसान और मजदूर परिवार रहते हैं। वर्ष 1962 में स्थापित शिरगाव की इस मराठी माध्यम की पाठशाला में पहली से चौथी कक्षा तक कुल 29 बच्चे पढ़ते हैं। यहां प्रधानाध्यापिका सहित तीन शिक्षिकाएं हैं।
प्रेरणा का स्त्रोत
इस स्कूल परिसर के नजदीक प्रसिद्ध लईराई देवी का मंदिर है। यहां हर वर्ष अप्रैल के आखिरी दिनों में होने वाले जत्रोत्सव (आगे से उत्सव) में गोवा सहित कई दूसरे राज्यों से करीब दस लाख श्रद्धालु आते हैं। स्कूल की प्रधानाध्यापिका, स्फूर्ति मांद्रेकर, दो वर्ष पहले की स्थितियों के बारे में बताते हुए कहती हैं कि उत्सव के बाद पूरी बस्ती में बड़ी मात्रा में प्लास्टिक के कप, बोतलें और पॉलीथीन जमा हो जाते हैं।
इसलिए, उन्हें हर समय लगता रहता था कि प्लास्टिक के इस ढेर / बढ़ते प्रकोप को कम करना बहुत जरुरी है। यही सोचकर स्फूर्ति और स्कूल की अन्य शिक्षिकाएं कई वर्षों से प्लास्टिक के खिलाफ एक बड़ा अभियान चलाना चाहती थीं। लेकिन, चाहकर भी ये शिक्षिकाएं ऐसा कोई प्रयास नहीं कर पा रही थीं। इस बारे में पूछने पर स्फूर्ति बताती हैं, ''पहले हमें डर लगता था कि हमने ऐसा कुछ किया तो कहीं लोग हमारा ही विरोध कर हमसे यह न पूछने लगें कि आपका काम बच्चों को पढ़ाना है या क्या?”, और यह भी बोल सकते हैं कि “यह एक सरकारी अभियान है, तो यह काम सरकार को करने दो। आप अपना काम करो।''
फिर वर्ष 2017 में गोवा राज्य सरकार ने एक आदेश निकाला। इसके तहत सौ से अधिक स्कूल में एक विशेष कार्यक्रम लागू हुआ। इसमें राज्य सरकार ने ही जब स्कूलों को कचरा-प्रबंधन, स्वच्छता और यातायात-जागरुकता के प्रति लोगों को संवेदनशील बनाने की जिम्मेदारी सौंपी तो शिरगाव के स्कूल की इन शिक्षिकाओं को अधिकृत जिम्मेदारी मिल गई और उन्होंने इसे एक औजार की तरह उपयोग किया।
प्लास्टिक मुक्त उत्सव का संकल्प
वर्ष 2019 में आयोजित देवी लईराई उत्सव के लिए स्कूल के बच्चों और उनके परिजनों ने अपने हाथों से करीब प्लास्टिक-रहित 4,000 बैग तैयार किए। उन्होंने ये बैग विशेष तौर पर श्रद्धालु और दुकानदारों को नि:शुल्क बांटे। स्कूल ने अगले वर्ष होने वाले उत्सव में ऐसे 10,000 से अधिक बैग बांटने का लक्ष्य रखा है। इसके लिए उत्सव शुरु होने के पहले प्रत्येक बच्चे ने 365 बैग बनाने का निर्णय लिया है।
स्फूर्ति ने यह भी बताया की इस संकल्प को पूरा करने के लिए उन्होंने सरपंच से निवेदन किया कि वे आगे आएं और इस अभियान का नेतृव्य करें। इसका कारण यह था कि सरपंच के बोलने से लोगों पर प्रभाव अधिक पड़ता है।
इस बारे में सरपंच सदाशिव गावकर कहते हैं, ''इस अभियान का लोगों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा है। प्लास्टिक-रहित बैगों की मांग बढ़ रही है। इसलिए, अगले उत्सव में हम इस पूरे अभियान को और अधिक गति से चलाएंगे।''
'पहले करो, फिर कहो', यही हैं सूत्र-वाक्य!
शिक्षिका, योगिता देशपांडे, ने जुलाई 2017 को पर्वरी में उनके मन में यह विचार आया कि प्लास्टिक उनके आसपास की सबसे ज्वलंत समस्या है। इस समस्या से निपटने के लिए वे ही खुद पहल करें। इसलिए, स्कूल के माध्यम से उन्होंने इस अभियान के लिए पूरे गांव को भागीदार बनाया।
योगिता की राय में किसी व्यक्ति द्वारा बचपन में सीखे गए नैतिक मूल्य जीवन भर उसके व्यवहार को प्रभावित करते हैं। वे कहती हैं, ''इस तरह से देखें तो हमारे बच्चे अभी से समझने लगे हैं कि उन्हें प्लास्टिक का उपयोग नहीं करना चाहिए। हमने बच्चों 'पहले करो, फिर कहो' का सूत्र दिया है, क्योंकि हमें पता है कि यदि हर आदमी इस सूत्र का अपने जीवन में अनुसरण करें तो ही असली परिवर्तन आएगा।''
दूसरी तरफ, स्कूल बच्चों को कागज और कपड़ों के बैग बनाने के तरीके सीखा रहा है, जिसके लिए अलग से क्लास लगती है। लिहाजा, इस पहल के तहत पहले तो शिक्षिकाओं ने कक्षा स्तर पर गतिविधि आयोजित करके बच्चों को इस तरह के बैग बनाना सिखाया। फिर इसी गतिविधि को समुदाय आधारित बनाया और बच्चों के साथ उनके परिजनों को भी बैग बनाने के काम से जोड़ा।
गाय के पेट से निकला था 40 किलो प्लास्टिक
बात नवंबर 2017 की है, जब स्कूल ने शिरगाव से करीब डेढ़ किलोमीटर दूर शिकेरी में स्थित गौशाला में बच्चों का भ्रमण कराया। इस दौरान गौशाला की 40 में से 4 गायों का ऑपरेशन करके बड़ी मात्रा में उनके पेट से प्लास्टिक निकाला गया।
कक्षा चौथी की आष्टवी पालणी बताती है कि उनमें एक गाय तो ऐसी थी जिसके पेट से 40 किलो प्लास्टिक निकाला गया था। बाद में पता चला कि वह गाय शिरगाव से ही लाई गई थी। आष्टवी के शब्दों में, ''हमें बहुत बुरा लगा था। हमने पहली बार सोचना शुरु किया था कि आखिर हमारे यहां इतना प्लास्टिक कहां से आता है।''
तब शिक्षिकाओं ने बच्चों को समझाया कि यह प्लास्टिक कहीं-न-कहीं हम सभी के घरों से ही आता है। कक्षा चौथी की ही साईजा वांयगणकर बताती हैं कि उसके बाद स्कूल में 'मूल्यवर्धन' नाम से एक सत्र रखा गया था, जिसमें प्लास्टिक की समस्या पर लंबी चर्चा हुई थी।
ग्राम पंचायत ने सुनी बच्चों की आवाज
बात मार्च 2018 की है, जब स्कूल परिसर के आसपास भी बड़े-बड़े कचरे के ढेर लगे होते थे। तब व्यवस्थित तरीके से किसी निश्चित जगह पर कचरा जमा नहीं होता था। इसलिए, बड़ी मात्रा में प्लास्टिक की थैलियां स्कूल के रास्ते और घरों के आसपास बिखरी पड़ी रहती थीं। कहने को एक निजी कंपनी ने कचरा जमा करने के लिए इस क्षेत्र में एक शेड बनाया था। फिर भी यह जन-जागृति की कमी ही थी कि अधिकतर लोग शेड का उचित उपयोग नहीं करते थे।
योगिता के मुताबिक इस समस्या से निजात पाने के लिए एक दिन स्कूल की पहल पर बच्चों ने सरपंच सदानंद गावकर को एक आवेदन दिया। स्कूल के पास कचरा जमा किया और सरपंच सदानंद गावकर को आमंत्रित करके इसे दिखाया। इसके बाद सरपंच ने यह कचरा उठवाया। बाद में ग्राम-पंचायत ने अपने स्तर पर महीने में दो बार कचरा जमा कराने की व्यवस्था सुनिश्चित की।
सामान्यत:, देखा गया है कि ग्राम-पंचायत जैसी संस्थाएं स्कूल को बदलने का प्रयास करती हैं। किंतु, यहां स्कूल ने पर्यावरण जैसे संवेदनशील मुद्दे पर ग्राम पंचायत की सोच और कार्य-पद्धति को बदलने की दिशा में पहला कदम उठाया था।
आशावादी दृष्टिकोण
एक अन्य शिक्षिका सुमिता तलवार की मानें तो ग्राम पंचायत और गांव वालों की मदद के बगैर पर्यावरण के मुद्दे पर इतना बड़ा अभियान चला पाना आसान नहीं था। लेकिन, बीते दो वर्षों में सबके दृष्टिकोण में सकारात्मक परिवर्तन आया है। वे कहती हैं, ''प्लास्टिक-मुक्ति के संकल्प को पूरा करने में अभी कई वर्ष लगेंगे। लेकिन, इन बच्चों को देखकर भरोसा होता है कि तब तक प्लास्टिक की चीजों के खिलाफ एक पीढ़ी तैयार हो जाएगी।''
स्कूल प्रबंधन समिति की अध्यक्ष वर्षा गाठवल की मानें तो प्लास्टिक के खिलाफ अभियान से बच्चों के साथ बड़ों का दृष्टिकोण एवं व्यवहार और अधिक व्यापक हुआ है। उनके अनुसार, ''रास्ते में पड़ी पॉलीथिन को यदि कोई बच्चा डस्टबिन में नहीं डालता तो कोई बड़ा व्यक्ति उसे टोकता है। इसी तरह, यदि कोई बड़ा व्यक्ति कचरा डालने के लिए डस्टबिन का उपयोग नहीं करता है तो कोई छोटा बच्चा टोक देता है।''
माता-पिताओं की तरफ से अंजू वायंगणकर अपना अनुभव साझा करते हुए कहती हैं, ''हम बच्चों के व्यवहार में भी परिवर्तन होते देख रहे हैं। जैसे, वे पीने के पानी के लिए अब स्कूल में प्लास्टिक की बजाय स्टील की बोतले ले जा रहे हैं।''
चौथी की रूपश्री च्यारी बताती है कि वह जब कभी गाय को पॉलीथिन खाते देखती है तो किसी बड़े व्यक्ति की मदद से उसे पॉलीथिन खाने से रोकती है। वह कहती हैं, ''तब मैं गाय को खाने के लिए कुछ-न-कुछ देती ही हूं।''
अंत में अगले वर्ष होने वाले उत्सव की बात सुन योगिता की आंखों में चमक आ जाती है। वे कहती हैं, ''हमें लगता है कि पहले साल हमने 4,000 पॉलीथीनों को गायों के पेट में जाने से रोका था। इस बार हम 10,000 पॉलीथीनों को गायों के पेट में जाने तो रोकेंगे।''
लेखक परिचय: शिरीष खरे पुणे स्थित शांतिलाल मुथा फाउंडेशन में एक संचार प्रबंधक के पद पर कार्यरत हैं।



























































