वित्त मंत्री ने हाल ही में वर्ष 2025-26 का केन्द्रीय बजट पेश किया। राजेश्वरी सेनगुप्ता इस लेख में बजट पर चर्चा करते हुए यह बताती हैं कि इस का सबसे महत्वपूर्ण पहलू कर राहत के माध्यम से मध्यम वर्ग के उपभोक्ताओं को लक्षित राजकोषीय प्रोत्साहन है। फिर भी, उनका तर्क है कि टिकाऊ, दीर्घकालिक विकास को बढ़ावा देने के लिए पर्याप्त संरचनात्मक सुधारों के अभाव में इस उपाय का प्रभाव सीमित और अल्पकालिक होने की संभावना है।
वर्ष 2025-26 का केन्द्रीय बजट भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ पर पेश किया गया। कुछ साल पहले, अर्थव्यवस्था कोविड-19 महामारी से मज़बूती से उबर रही थी और सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर 7-8% थी। इससे यह आशा जगी कि देश जल्द ही उन्नत अर्थव्यवस्थाओं की श्रेणी में शामिल हो सकता है। हालांकि हाल ही में, आर्थिक गति धीमी पड़ गई है, जिससे देश के दीर्घकालिक विकास पथ के बारे में नए सिरे से सवाल उठने लगे हैं।
इस पृष्ठभूमि में, केन्द्रीय बजट से दो तरह की उम्मीदें थीं। पहली यह कि वर्ष 2025-26 के लिए अनुमानित बजट घाटा नियोजित राजकोषीय योजना के अनुरूप रहेगा, जिससे अस्थिर वैश्विक वातावरण में आर्थिक स्थिरता की रक्षा हो पाएगी। दूसरी उम्मीद यह थी कि बजट में तेजी से विकास को पुनर्जीवित करने के उद्देश्य से कई पहलें शामिल की जाएंगी।
बजट ने कुछ मामलों में इन उम्मीदों को पूरा भी किया है। इसमें सकल घरेलू उत्पाद के 4.5% से कम के राजकोषीय घाटे के लक्ष्य की घोषणा की गई और मध्यम आय वाले परिवारों के लिए मामूली कर राहत शामिल की गई, जिससे उपभोग मांग में वृद्धि होने की उम्मीद है। अन्य क्षेत्रों में, बजट उम्मीदों से कम रहा। हालांकि राजकोषीय अनुमानों की विश्वसनीयता सवालों के घेरे में है, लेकिन महत्वपूर्ण संरचनात्मक सुधारों का अभाव चौंकाने वाला है। इससे भी अधिक चिंताजनक बात यह है कि व्यापक विकास रणनीति के बारे में स्पष्टता का अभाव है।
आर्थिक पृष्ठभूमि
बजट भाषण की शुरुआत वित्त मंत्री द्वारा विकसित भारत, अर्थात वर्ष 2047 तक विकसित देश का दर्जा प्राप्त करने के लक्ष्य के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता की पुष्टि के साथ हुई। इस संदर्भ में, यह उजागर करना महत्वपूर्ण है कि विकसित और विकासशील अर्थव्यवस्था के बीच सबसे महत्वपूर्ण अंतर प्रति-व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद की असमानता है। उदाहरण के लिए, संयुक्त राज्य अमेरिका में प्रति-व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद लगभग 86,000 अमेरिकी डॉलर है, जबकि उदारीकरण के तीन दशक से अधिक समय बाद भी भारत का प्रति-व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद केवल 2,600 अमेरिकी डॉलर है, जो अन्य 140 देशों से कम है। यही कारण है कि प्रति-व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद को बढ़ाना लंबे समय से भारत की नीति निर्माण का केन्द्र रहा है।
इसलिए महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या भारत, विकसित भारत के महत्वाकांक्षी लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में आगे बढ़ रहा है। तकनीकी रूप से देखें तो, यह देश की संभावित विकास दर को निर्धारित करने पर निर्भर करता है। यदि यह 8-10% की सीमा में है, तो वर्तमान मंदी कोई चिंता का विषय नहीं हो सकती ; अर्थव्यवस्था जल्द ही अपनी पूर्व-गति प्राप्त कर सकती है, भले ही सरकार का कोई महत्वपूर्ण हस्तक्षेप न हो। हालांकि, अगर वास्तविक संभावित विकास दर बहुत कम है, तो देश के विकास पथ को आगे बढ़ाने के लिए गहन संरचनात्मक सुधारों की आवश्यकता होगी।
इस प्रश्न का उत्तर देना सीधा नहीं है, खासकर इसलिए क्योंकि भारत के सकल घरेलू उत्पाद के आँकड़ों में मापन संबंधी गंभीर समस्याएं हैं। और यदि डेटा को सच मान लिया जाए, तो रुझान चिंताजनक हैं।
कुछ और हालिया घटनाक्रमों पर विचार करते हैं। पिछली पाँच तिमाहियों में से चार में वास्तविक जीडीपी वृद्धि में गिरावट आई है। वर्ष 2023 के मध्य में, अर्थव्यवस्था 8% से अधिक की मज़बूत दर से बढ़ रही थी। लेकिन, सितंबर 2024 में समाप्त होने वाली तिमाही तक, विकास दर घटकर 5.5% से कम हो गई। यदि यह मंदी केवल चक्रीय होती, तो कुछ ऐसे कारक सामने आते जो अर्थव्यवस्था को पुनः उच्च वृद्धि की राह पर लेकर जा सकते थे। लेकिन ऐसा कुछ भी स्पष्ट नहीं है। खपत की मांग कम बनी हुई है, खासकर शहरी भारत में। स्वस्थ कॉर्पोरेट बैलेंस शीट के बावजूद, निवेश का स्तर कमज़ोर बना हुआ है। निर्यात की संभावनाएं भी उत्साहवर्धक नहीं हैं, विशेष रूप से कमज़ोर वैश्विक अर्थव्यवस्था तथा विनिमय दर में, जो पिछले कुछ वर्षों में वास्तविक रूप से बढ़ी है, जिसके कारण वैश्विक मंच पर भारत की प्रतिस्पर्धात्मकता कम हुई है।
जीडीपी के धीमे प्रदर्शन के पीछे संरचनात्मक कमज़ोरियाँ हैं। इनमें लाखों बेरोज़गार युवाओं के लिए पर्याप्त रोज़गार के अवसरों की कमी, खराब प्रदर्शन करने वाला विनिर्माण क्षेत्र, जिसका जीडीपी में हिस्सा वर्ष 2010 में 17% था, जो वर्ष 2023 में घटकर 13% रह गया है और मज़दूरी में मामूली वृद्धि हुई है। फेडरेशन ऑफ़ इंडियन चैंबर्स ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री की दिसंबर 2024 में जारी रिपोर्ट से पता चलता है कि 2019-2023 की अवधि के दौरान अर्थव्यवस्था के छह प्रमुख क्षेत्रों में नाममात्र मज़दूरी की चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर 0.8% से 5.4% के बीच थी। यह देखते हुए कि इस अवधि के दौरान औसत वार्षिक मुद्रास्फीति की दर 5.7% थी, इसका मतलब है कि वास्तविक आय में गिरावट आई है।
भारत जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं में, विकास के प्राथमिक चालक आम तौर पर निजी निवेश और निर्यात होते हैं। इसलिए निवेश के रुझानों की कुछ विस्तार से जाँच करना उचित है। निजी निवेश को बढ़ावा देने के लिए सरकार द्वारा किए गए मज़बूत प्रयासों, जैसे कि वर्ष 2019 में प्रमुख कॉर्पोरेट कर कटौती और बुनियादी ढांचे में बड़े पैमाने पर सार्वजनिक निवेश के बावजूद, निजी निवेश की वृद्धि वास्तव में धीमी रही है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के आँकड़ों के अनुसार, कार्यान्वयन के तहत निजी निवेश परियोजनाओं का मूल्य वर्ष 2005-06 से वर्ष 2010-11 तक औसतन 47% वार्षिक दर से बढ़ा। हालांकि, महामारी के बाद की अवधि (2021-22 से 2023-24) में वे सालाना केवल 15% की बहुत धीमी गति से बढ़े। कैलेंडर वर्ष 2024 में, यह वृद्धि दर घटकर 5.6% रह गई।
घोषित नई निवेश परियोजनाओं में वृद्धि भी, जो निजी क्षेत्र के भीतर व्यापार आशावाद का एक प्रमुख संकेतक है, आश्चर्यजनक रूप से धीमी रही है- वर्ष 2024 में केवल 1.3% से हुई है। यह वर्ष 2004-05 और वर्ष 2007-08 के बीच देखी गई 74% की उल्लेखनीय औसत वार्षिक वृद्धि दर के बिल्कुल विपरीत है, जो हाल के दिनों में निजी क्षेत्र के विश्वास और घरेलू निवेश गतिविधि में उल्लेखनीय गिरावट को रेखांकित करता है।
यद्यपि भारतीय कंपनियाँ अपने घरेलू खर्च में कटौती कर रही हैं, फिर भी उन्होंने अपने विदेशी निवेश में पर्याप्त वृद्धि की है। यह निवेश वर्ष 2023 में 20 बिलियन अमेरिकी डॉलर था, जो वर्ष 2024 में बढ़कर 36 बिलियन अमेरिकी डॉलर हो गया है। दूसरे शब्दों में कहें तो, निजी फर्म निवेश कर रही हैं- लेकिन घरेलू अर्थव्यवस्था के बजाय भारत के बाहर।
विदेशी कंपनियाँ भी इसी तरह की चुप्पी दिखा रही हैं। प्रमुख उत्पादन-लिंक्ड प्रोत्साहन (पीएलआई) योजना सहित मेक इन इंडिया के लिए फर्मों को प्रोत्साहित करने की पहल के बावजूद, भारतीय अर्थव्यवस्था में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) घट रहा है। सकल घरेलू उत्पाद में शुद्ध एफडीआई प्रवाह की हिस्सेदारी में तेजी से गिरावट आई है, जो वर्ष 2008 के 3.6% के शिखर से घटकर वर्ष 2023 में 0.8% हो गई है। इससे भी अधिक चिंताजनक बात यह है कि वर्ष 2021-22 से शुद्ध एफडीआई में संकुचन हो रहा है, जिसमें औसत वार्षिक गिरावट 34% है। भारत में एफडीआई का यह निराशाजनक प्रदर्शन ऐसे समय में आया है जब कई बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ सक्रिय रूप से चीन पर अपनी निर्भरता कम करने की कोशिश कर रही हैं। वियतनाम जैसे देशों ने इस बदलाव का लाभ उठाया है, जबकि भारत इस मौके से चूक गया है।
यह स्थिति माल निर्यात के निराशाजनक प्रदर्शन में भी दिखाई देती है। पिछले दशक में, माल निर्यात की चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर (सीएजीआर) मामूली 3.3% रही है, जिसके परिणामस्वरूप वैश्विक माल निर्यात में भारत की हिस्सेदारी मात्र 1.8% रह गई है। हालांकि यह सच है कि वैश्विक सेवा निर्यात में भारत की हिस्सेदारी सम्मानजनक 4.3% है, लेकिन समग्र विकास दर को बढ़ाने और देश के अकुशल और अल्प-रोज़गार वाले श्रमिकों के बड़े समूह को रोज़गार प्रदान करने के लिए अधिक गतिशील निर्यात-उन्मुख विनिर्माण क्षेत्र की आवश्यकता बनी हुई है।
बजट घोषणाएँ कहाँ कम पड़ गईं?
इस आर्थिक पृष्ठभूमि में, बजट में सबसे प्रमुख विकासोन्मुख उपाय मध्यम वर्ग के वेतनभोगी कर्मचारियों, विशेष रूप से 12,00,000 रुपये तक कमाने वाले कर्मचारियों के लिए कर राहत की घोषणा थी, जो अब आयकर के अधीन नहीं होंगे, साथ ही उच्च आय वालों के लिए कुछ कर कटौती भी की गई है। उपभोग मांग को पुनर्जीवित करने के उद्देश्य से उठाए गए इस कदम की व्यापक रूप से सराहना की गई है।
फिर भी यहां कुछ बिंदुओं पर ध्यान दिया जाना महत्वपूर्ण है। सबसे पहला- इस उपाय से अधिकांश आबादी अप्रभावित रहती है, क्योंकि केवल 2.2% भारतीय ही कर चुकाते हैं। दूसरे, इस कर राहत का आकार मामूली है, जो सकल घरेलू उत्पाद का केवल 0.3% है। अंत में, ऐसी स्थिति में जहां विकास धीमा हो रहा है, नौकरियां मिलना आसान नहीं है, तथा शेयर बाजार में तेजी समाप्त हो चुकी है, एक औसत मध्यम वर्गीय परिवार द्वारा इस अतिरिक्त धन को उपभोग पर खर्च करने की संभावना अपेक्षाकृत कम है। इसके बजाय, यह संभावना काफी है कि इस पैसे को बचाया जाएगा या घरेलू ऋणों को चुकाने के लिए इस्तेमाल किया जाएगा। परिणामस्वरूप, संदेह है कि यह उपाय समग्र मांग को महत्वपूर्ण बढ़ावा देगा।
बुनियादी रूप से, कर कटौती के पीछे अंतर्निहित धारणा यह प्रतीत होती है कि आर्थिक मंदी केवल चक्रीय है और मांग में मामूली वृद्धि मंदी को दूर करने के लिए पर्याप्त होगी। जैसा कि चर्चा की गई है, संदेह करने के कई कारण हैं कि आर्थिक समस्याएं बहुत गहरी हैं तथा उनका स्वरूप अधिक संरचनात्मक हैं। इससे पता चलता है कि समस्याओं के समाधान हेतु बजट में प्रस्तावित उपायों की तुलना में कहीं अधिक ठोस, दीर्घकालिक उपायों की आवश्यकता होगी।
कुछ संकेत हैं कि सरकार ने कई समस्याओं को पहचाना है। उदाहरण के लिए, बजट में एक उच्च-स्तरीय समिति की स्थापना का प्रावधान किया है, जिसे सभी गैर-वित्तीय विनियमनों की समीक्षा करने का काम सौंपा गया है। साथ ही, वित्तीय स्थिरता और विकास परिषद (एफएसडीसी) को वित्तीय क्षेत्र के विनियमनों के प्रभाव का आकलन करने का निर्देश दिया गया है। यह निजी क्षेत्र की आर्थिक गतिविधि को आकार देने में विनियमनों की महत्वपूर्ण भूमिका की समझ को दर्शाता है। हालांकि, समितियों की नियुक्ति सुधारों को लागू करने के समान नहीं है और यह देखना बाकी है कि क्या इन पहलों से ऐसे ठोस नतीजे निकलेंगे जो निजी क्षेत्र पर वर्तमान में लागू नियामकीय बोझ को कम करेंगे।
नई समितियों की घोषणा के अलावा, बजट में कई छोटे-छोटे उपाय भी शामिल किए गए हैं जो कुछ हद तक मददगार साबित हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, खासकर यह देखते हुए कि इस नीति ने महामारी के दौरान एमएसएमई को महत्वपूर्ण ऋण प्रवाह की सुविधा प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों (एमएसएमई) के लिए ऋण गारंटी सीमा बढ़ाने का निर्णय एक सकारात्मक कदम है (सेनगुप्ता और वर्धन 2023)। इस कदम से इस क्षेत्र को जरूरी वित्तीय सहायता मिलने की उम्मीद है, जो पूंजी तक पहुँच बनाने में चुनौतियों का सामना कर रहा है, तथा इससे अर्थव्यवस्था के इस महत्वपूर्ण हिस्से में विकास और रोज़गार सृजन को बढ़ावा देने में मदद मिल सकती है।
अंततः बजट चर्चा में मौजूद चुनौतियों को नजरअंदाज कर दिया गया। पहला तत्व जो गायब था, वह था वर्तमान स्थिति का निदान। इस निदान के बाद सरकार की मध्यम अवधि की विकास रणनीति की स्पष्ट अभिव्यक्ति होनी चाहिए थी।
विडंबना यह है कि पिछले वर्षों में सरकार ने वास्तव में ऐसा ही दृष्टिकोण प्रस्तुत किया था। "चीन मॉडल" के एक बदलाव पर आधारित इसकी विकास रणनीति का उद्देश्य बुनियादी ढांचे का निर्माण करके और फर्मों को निवेश के लिए प्रोत्साहन प्रदान करके निजी क्षेत्र के लिए अनुकूल वातावरण बनाना था। लेकिन इस बजट में इन उपायों का अभाव साफ दिखाई दिया। बजट भाषण में पीएलआई योजना का कोई उल्लेख नहीं किया गया और न ही बुनियादी ढांचे पर खर्च में कोई पर्याप्त वृद्धि की बात कही गई।
इससे विकास रणनीति कहां रह जाती है? यह सवाल और भी महत्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि पिछली रणनीति से अभी तक अपेक्षित लाभ नहीं मिला है। ऐसी स्थिति में सरकार किस वैकल्पिक विकास रणनीति की घोषणा कर सकती थी?
संक्षेप में, इस बजट में फर्मों के सामने आने वाले जोखिमों को कम करके निजी निवेश को बढ़ावा देने के उद्देश्य से सुधारों की एक श्रृंखला की घोषणा की जा सकती थी। उदाहरण के लिए- आयात शुल्कों में व्यवस्थित कटौती, जिससे व्यापार उदारीकरण की ओर बढ़ने का स्पष्ट संकेत मिलता हो ; बाजार में अधिक प्रतिस्पर्धा को सुविधाजनक बनाने के लिए गुणवत्ता नियंत्रण आदेश (क्यूसीओ) को हटाना ; उपकर और अधिभार की वर्तमान, जटिल संरचना जो अक्सर संसाधन आवंटन को विकृत करती है, के स्थान पर राज्यों को राजकोषीय हस्तांतरण की अधिक प्रभावी और पारदर्शी प्रणाली ; व्यवसायों पर बोझ को कम करने, अनुपालन को सरल बनाने और कर विवादों के समाधान में तेजी लाने के लिए कर प्रशासन सुधार ; बिजली क्षेत्र में सुधार ; साथ ही राज्यों को भूमि और श्रम बाजार सुधारों को लागू करने के लिए प्रोत्साहन। ये सुधार भारत की विकास क्षमता को खोलने और निजी क्षेत्र की ‘जीवंत भावनाओं’ को पुनर्जीवित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते थे।
राजकोषीय समेकन के संबंध में, बजट में वर्ष 2025-26 में राजकोषीय घाटे को सकल घरेलू उत्पाद के 4.4% तक कम करने का लक्ष्य घोषित किया गया है, जो पहले निर्धारित लक्ष्य 4.5%, से थोड़ा कम है, जो राजकोषीय अनुशासन के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता का संकेत देता है। यह निस्संदेह एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम है, क्योंकि राजकोषीय स्थिरता दीर्घकालिक, सतत आर्थिक विकास के लिए एक महत्वपूर्ण पूर्व-शर्त है। हालांकि, राजकोषीय घाटे में कमी उन मान्यताओं पर आधारित है, जिनकी बारीकी से जांच की जानी चाहिए। विशेष रूप से, बजट में व्यक्तिगत आयकर राजस्व में साल-दर-साल 14.4% की वृद्धि का अनुमान लगाया गया है। यह धारणा नए कर राहत उपायों के मद्देनजर संदिग्ध हो जाती है, जो प्रभावी रूप से आयकरदाताओं की संख्या को कम कर देते हैं। इसके अलावा, अब जबकि शेयर बाजार में उछाल खत्म हो चुका है, सरकार को अगले साल भारी पूंजीगत लाभ-करों से कोई लाभ नहीं मिल सकता है। धीमी होती आर्थिक गति को देखते हुए कॉर्पोरेट आयकर और यहां तक कि वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) के अनुमान भी आशावादी ही दिखते हैं।
यदि राजस्व लक्ष्य स्तर से कम हो जाता है, तो दो जोखिम उत्पन्न होंगे। अधिक आक्रामक कर प्रवर्तन हो सकता है। यह निश्चित रूप से बारीकी से देखने वाली बात है, क्योंकि कर प्रशासन में कोई भी चूक या अतिक्रमण उस विकास को कमज़ोर कर सकता है जिसे सरकार प्रोत्साहित करने का प्रयास कर रही है। दूसरा जोखिम यह है कि खर्च में कटौती करनी पड़ेगी और इसका मतलब होगा कि पूंजीगत व्यय और भी कम हो जाएगा।
निष्कर्ष
संक्षेप में, वर्ष 2025-26 के लिए केन्द्रीय बजट का सबसे महत्वपूर्ण पहलू कर राहत के माध्यम से मध्यम वर्ग के उपभोक्ताओं को लक्षित राजकोषीय प्रोत्साहन है। यह उपाय ऐसे समय में आया है जब भारतीय अर्थव्यवस्था उल्लेखनीय मंदी का सामना कर रही है। राजकोषीय नीति अल्पकालिक राहत प्रदान कर सकती है, जबकि निजी निवेश में गिरावट, कमज़ोर माल निर्यात और सुस्त रोज़गार सृजन जैसी गहरी आर्थिक चुनौतियाँ से निपटने के लिए अस्थायी समाधानों से अधिक की आवश्यकता है। ऐसे उपायों में टिकाऊ, दीर्घकालिक विकास को बढ़ावा देने के लिए पर्याप्त संरचनात्मक सुधारों की अपेक्षा होगी। इन मूल मुद्दों पर ध्यान दिए बिना, राजकोषीय प्रोत्साहन का प्रभाव सीमित और अल्पकालिक होने की संभावना है।
भारत को सतत उच्च विकास दर हासिल करने तथा प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) बढ़ाने के लिए एक नई विकास रणनीति की आवश्यकता है। बजट इस तरह की रूपरेखा तैयार करने का एक अवसर था। इसमें कुछ अलग-अलग कदम उठाए गए, लेकिन समग्र दृष्टिकोण में भारत के विकास में बाधा डालने वाले बुनियादी मुद्दों से निपटने के लिए एक सुसंगत योजना का अभाव है। इन चुनौतियों को अधिक स्पष्ट रूप से स्वीकार न करने से पता चलता है कि सरकार आवश्यक सुधार के पैमाने को कम करके आँक रही है। इस प्रकार, यह बजट, इससे पहले के कई बजटों की तरह, एक और छूटे हुए अवसर का प्रतिनिधित्व करता है।
अंग्रेज़ी के मूल लेख और संदर्भों की सूची के लिए कृपया यहां देखें।
लेखक परिचय : डॉ. राजेश्वरी सेनगुप्ता मुंबई के इंदिरा गांधी विकास अनुसंधान संस्थान में अर्थशास्त्र की एसोसिएट प्रोफेसर हैं। उनका शोध सामान्यतः उभरती बाजार अर्थव्यवस्थाओं और विशेष रूप से भारत के नीति-प्रासंगिक, मैक्रो-वित्तीय मुद्दों पर केंद्रित होता है, जो अंतरराष्ट्रीय वित्त, खुली अर्थव्यवस्था मैक्रोइकॉनॉमिक्स, मौद्रिक अर्थशास्त्र, बैंकिंग और वित्तीय बाजारों, फर्म वित्तपोषण और राष्ट्रीय खातों के माप के क्षेत्रों में है। अतीत में उन्होंने चेन्नई में वित्तीय प्रबंधन और अनुसंधान संस्थान (आईएफएमआर बिजनेस स्कूल) में एक संकाय पद और वाशिंगटन डीसी में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष तथा विश्व बैंक के साथ-साथ, सैन फ्रांसिस्को फेडरल रिजर्व बैंक में अल्पकालिक अनुसंधान पदों पर कार्य किया है। डॉ. सेनगुप्ता दिवालियापन कानून सुधार समिति के शोध सचिवालय की सदस्य थीं, जिसने भारत के दिवाला और दिवालियापन संहिता 2016 का प्रस्ताव रखा था। वह वर्तमान में फिक्की इकोनॉमिस्ट्स फोरम और सोसाइटी फॉर इकोनॉमिक्स रिसर्च इन इंडिया (एसईआरआई) की सदस्य हैं। वह जर्नल ऑफ साउथ एशियन डेवलपमेंट की मुख्य संपादक भी हैं।
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