वर्ष 2022-23 के बजट की सफलताएं एवं चूक को रेखांकित करते हुए, राजेश्वरी सेनगुप्ता यह तर्क देती हैं कि सरकार द्वारा पूंजीगत व्यय को बढ़ावा देना एक सही दिशा में कदम प्रतीत होता है, जबकि संरक्षणवाद पर निरंतर ध्यान केंद्रित करने के पीछे का तर्क संदिग्ध है। उनके विचार में, बजट में एक सुसंगत विकास रणनीति का अभाव है, जो कि वर्तमान में विशेष रूप से सरकारी ऋण के उच्च स्तर को देखते हुए आवश्यक थी।
वर्ष 2022-23 का बजट एक सरल, सुव्यवस्थित बजट के रूप में सामने आया है, जिसमें किसी भी प्रकार की कर व्यवस्था का जटिल पुनर्गठन नहीं है, और इसके बजाय निवेश और आर्थिक विकास को बढ़ावा देने के लिए सरकारी खर्च को बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित किया गया है। तथापि, इस बजट में कुछ विसंगतियां हैं जो ध्यान देने योग्य हैं।
उस व्यापक आर्थिक संदर्भ को समझना महत्वपूर्ण है जिसमें यह बजट पेश किया गया था। विशेष रूप से चार बिंदु उल्लेखनीय हैं। सबसे पहला, आर्थिक गतिविधि अपने महामारी-पूर्व के स्तर पर वापस आती दिख रही है। लेकिन अब हमने विकास के दो साल गंवा दिए हैं। यह भारत जैसी उभरती अर्थव्यवस्था के लिए विशेष रूप से बहुत महंगा साबित हो सकता है, और वो भी ऐसी स्थिति में जब यह महामारी (सेनगुप्ता 2020, सुब्रमण्यम और फेलमैन 2019) से पहले भी अच्छी तरह से आगे नहीं बढ़ रही थी। सरकारी जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) डेटा में माप संबंधी समस्याएं हैं, लेकिन सभी विश्वसनीय संकेतक दर्शाते हैं कि अर्थव्यवस्था महामारी से पहले के दशकों से ही धीमी हो रही थी। निजी क्षेत्र द्वारा किया जाने वाला निवेश स्थिर था, खपत की मांग कमजोर हो रही थी, और निर्यात प्रदर्शन भी खराब था। सरकारी उपभोग व्यय के अलावा, विकास के अन्य सभी इंजन सुस्त थे, और बेरोजगारी बढ़ गई थी। दूसरा, वर्तमान आर्थिक सुधार के दौरान भी, विकास के मुख्य इंजनों में से एक- निजी निवेश की मांग- सुस्त बनी हुई है, और क्षमता उपयोग में सुधार नहीं हुआ है। जबकि निर्यात का प्रदर्शन प्रभावशाली रहा है, इसमें से अधिकतर विकसित अर्थव्यवस्थाओं के महामारी से उबरने के कारण हो सकता है और इसलिए जब उनकी वृद्धि अधिक स्थायी स्तर तक धीमी हो जाती है तो यह एक क्षणिक घटना साबित हो सकती है। भारतीय निर्यात के मूल्य में वृद्धि भी आंशिक रूप से मात्रा में वृद्धि के बजाय बढ़ती कीमतों के कारण हुई थी।
तीसरा, जैसा कि उपाख्यानात्मक प्रमाण दर्शाते हैं, बड़ी कंपनियों के द्वारा लाए गए सुधार समेत, महामारी से सुधार असमान रहा है। दूसरी ओर, बड़ी संख्या में मध्यम, लघु और सूक्ष्म उद्यम और परिवारों का एक बड़ा हिस्सा महामारी से प्रतिकूल रूप से प्रभावित हुआ है। उन्होंने इस महामारी के झटके के प्रभाव से लडखडाना जारी रखा है। कुल मिलाकर, महामारी-पूर्व की अवधि से तुलना की जाए तो वैश्विक व्यापक आर्थिक वातावरण अब काफी अधिक प्रतिकूल है। विकसित दुनिया चार दशकों में अपनी उच्चतम मुद्रास्फीति का सामना कर रही है। यह उनके नीति-निर्माताओं को उनके द्वारा महामारी के दौरान वित्तीय प्रणाली में रखी गई अतिरिक्त तरलता को वापस लेने तथा ब्याज दरों को बढ़ाने के लिए प्रेरित करेगा। परिणामस्वरूप, यह भारत जैसी उभरती अर्थव्यवस्था को दो मुख्य तरीकों से प्रभावित करेगा: (i) इससे भारतीय वित्तीय बाजारों से पूंजी का बहिर्वाह होगा- यह पहले से ही विकसित देश के केंद्रीय बैंकों द्वारा दरों में बढ़ोतरी की प्रत्याशा में हो रहा है; (ii) यह भारत द्वारा मुद्रास्फीति आयात की संभावना को बढ़ाएगा- तेल और वस्तुओं सहित प्रमुख भारतीय आयातों पर कीमतें पहले से ही तेजी से बढ़ रही हैं।
इससे पता चलता है कि बजट बेहद महत्वपूर्ण मोड़ पर पेश किया गया था। अब अर्थव्यवस्था के सामने दो प्रमुख प्रश्न इस प्रकार हैं: (i) उच्च, सतत विकास कैसे सुनिश्चित किया जा सकता है?, और (ii) सरकार की राजकोषीय रणनीति क्या है?
इस पृष्ठभूमि में, बजट का सफलता एवं विफलता- दोनों दृष्टि से विश्लेषण किया गया।
आर्थिक विकास: निवेश
निजी निवेश की मांग की सुस्ती को देखते हुए, यह व्यापक रूप से अनुमान लगाया गया था कि सरकार पिछले साल के पूंजीगत व्यय में 34.5% की वृद्धि को देखते हुए अपनी घोषणा के अनुसार बजट में पूंजीगत व्यय में वृद्धि करेगी। अपेक्षा के अनुरूप, वित्त वर्ष 2022-231 के बजट में पूंजीगत व्यय हेतु 35.4% की वृद्धि शामिल की गई है।
अर्थव्यवस्था में मांग को प्रोत्साहित करने के लिए सरकार के पास या तो अपने उपभोग व्यय (अर्थात राजस्व खाते पर व्यय) को बढाने का या पूंजीगत व्यय को बढाने का विकल्प था। पूंजीगत व्यय को बढाने का विकल्प चुनने का निर्णय अपेक्षाकृत बेहतर कदम था। पूंजीगत व्यय में वृद्धि उपभोग व्यय में वृद्धि की तुलना में एक बड़े गुणक प्रभाव से जुड़ी है, और इसलिए यह रोजगार सृजन, बढ़ती मांग और विकास को बढ़ावा देने के लिए एक बेहतर साधन है। सरकार के अनुसार, उच्च पूंजीगत व्यय खर्च से मांग और इसके चलते क्षमता उपयोग में तेजी लाने हेतु निवेश शुरू करने के लिए निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित किये जाने की भी अपेक्षा है।
सरकारी खर्च की गुणवत्ता (अर्थात स्वरूप) भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह सरकार की ऋण चुकौती क्षमता से संबंधित है। उपभोग व्यय महज ऋण के मौजूदा स्टॉक में जुड़ता है, जबकि पूंजीगत व्यय उत्पादक संपत्ति का निर्माण करता है और इसलिए यह सरकार को अपना ऋण चुकाने में सक्षम बनाता है। यह विशेष रूप से मौजूदा स्थिति में महत्वपूर्ण है क्योंकि महामारी के दौर में सरकारी ऋण कई गुना बढ़ गया है।
आर्थिक विकास: निर्यात
साथ ही, बजट में विकास की रणनीति के संबंध में एक स्पष्ट असंगति थी, और यह निर्यात से संबंधित है।
बांग्लादेश, वियतनाम, या चीन जैसे हमारे एशियाई समकक्षों के विपरीत, विकास को बढ़ाने के लिए एक प्रमुख साधन के रूप में निर्यात का उपयोग करने के मामले में भारत हमेशा पीछे रह गया है। लेकिन अब विदेशी कंपनियां चीन से दूर विविधीकरण के अवसरों की तलाश कर रही हैं अतः भारत को बड़े निर्यातक देशों के क्लब में शामिल होने का एक ऐतिहासिक अवसर है। तदनुसार, विदेशी कंपनियों को भारत में आकर उत्पादन कर निर्यात करने हेतु प्रोत्साहित करने के लिए सरकार की इच्छा का खुले तौर पर संकेत देना बजट में एक महत्वपूर्ण विकास रणनीति के रूप में हो सकता था।
इस संबंध में बजट में क्या किया गया? इसमें 350 से अधिक आयात शुल्क छूट को हटाने; पूंजीगत वस्तुओं और परियोजना आयात पर रियायती शुल्कों को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने- जिससे 7.5% टैरिफ रहेगा; और कई वस्तुओं जैसे सौर सेल, हेडफ़ोन इत्यादि पर आयात शुल्क में वृद्धि की घोषणा की गई। वर्ष 2015 से आयात शुल्क बढ़ रहे हैं और इस बजट में उसी नीति को जारी रखा गया है।
यह समस्या क्यों है? जब अंतरराष्ट्रीय कंपनियां भारत में उत्पादन कर निर्यात करने का फैसला करेंगी, तो वे एक महत्वपूर्ण कारक पर विचार करेंगी कि क्या वे तब भी दुनिया भर में अपनी आपूर्ति श्रृंखला से विभिन्न उत्पादों तक पहुंचने में सक्षम होंगी, जैसा कि वे चीन में करती हैं। इसका एक अच्छा उदाहरण एप्पल का आईफोन है, जिसके निर्माण हेतु अमेरिका, जर्मनी, जापान, दक्षिण कोरिया, ताइवान और कई अन्य स्थानों में निर्मित घटकों का उपयोग किया जाता है। आयात शुल्क के कारण इस प्रक्रिया में बाधा आती हैं क्योंकि उससे आयात की लागत में वृद्धि होती है, और इसलिए उत्पादन श्रृंखला भी बाधित होती है। संरक्षणवादी माहौल की ओर बढ़ते हुए इस बजट ने विदेशी कंपनियों को यह संदेश दिया है कि भारत में कारोबार करना उनके लिए महंगा और मुश्किल होने वाला है।
वित्तीय रणनीति: उधार लेने संबंधी कार्यक्रम
राजकोषीय रणनीति के संबंध में, केंद्रीय बजट में दो तत्व सामने आए। महामारी के दौरान, केंद्र सरकार का घाटा काफी बढ़ गया। अब भी, बजट में वित्तीय वर्ष 2022-23 के लिए अनुमानित 6.4% से अधिक घाटे का अनुमान लगाया गया है। इस घाटे को अत्यधिक उधार के माध्यम से वित्तपोषित किया जाएगा।
इसे संदर्भ में रखकर देखते हैं। विश्व स्तर पर, विकसित देश के केंद्रीय बैंक अपनी मुद्रा नीति के रुख को सख्त करने लगे हैं। भारत में, उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) मुद्रास्फीति आरबीआई (भारतीय रिजर्व बैंक) के मुद्रास्फीति लक्ष्य बैंड की अपेक्षा 6% ऊपरी सीमा के करीब चल रही है। साथ ही मुद्रास्फीति अब वैश्विक कच्चे तेल और अन्य वस्तुओं की बढती कीमतों सहित विकसित देशों में बढ़ती मुद्रास्फीति से अतिरिक्त दबावों का सामना कर रही है।
तदनुसार, आरबीआई धीरे-धीरे अपने मुद्रा रुख में बदलाव कर रहा है। इसने अपने सरकारी बांड खरीद कार्यक्रम को बंद कर दिया है, जिसका उद्देश्य सरकार के लिए उधार लेना सस्ता करना था। इसकी संभावना है कि, यह वित्त वर्ष 2022-23 के दौरान किसी भी समय ब्याज दरें बढ़ाकर इस कदम का पालन करेगा।
वित्तीय बाजारों ने यह उम्मीद की थी कि भले ही आरबीआई ने अपनी बांड खरीद को समाप्त कर दिया हो, विदेशी निवेशक अपनी बांड खरीद को बढ़ाएंगे। विशेष रूप से, उन्हें उम्मीद थी कि सरकार कर छूट की घोषणा करेगी जिससे वैश्विक बांड सूचकांकों में सरकारी बांडों को शामिल करने में सुविधा होगी। ऐसा होते ही, इन सूचकांकों पर नज़र रखने वाले वैश्विक निवेशकों को भारत सरकार के बांडों की बड़ी खरीदारी करने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। हालांकि, बजट में इस संबंध में कोई घोषणा नहीं की गई।
दूसरे शब्दों में, ऐसे समय में जब सरकारी प्रतिभूतियों की मांग कमजोर होने वाली लग रही थी, भारत सरकार ने आपूर्ति में भारी वृद्धि की घोषणा की। अप्रत्याशित रूप से, बजट की घोषणा के बाद से 10 साल की सरकारी प्रतिभूतियों पर दरें 6.9% हो गई हैं।
यह एकमात्र परिणाम से बहुत दूर है। आने वाले वर्ष में, बड़े उधार लेने संबंधी कार्यक्रम के संभावित रूप से कई परिणाम होंगे। बजट पर ब्याज का बोझ बढ़ता जाएगा। पहले से ही केंद्र सरकार के राजस्व का 40% से अधिक ब्याज व्यय के लिए जाता है, जो 90% के करीब एक समेकित सरकारी ऋण-से-जीडीपी अनुपात का परिणाम है, जो अब तक का उच्चतम स्तर है। और चूंकि सरकार ने बड़ी रकम उधार लेना जारी रखा हुआ है, बजट के अनुसार, वित्तीय वर्ष 2020-21 और वित्तीय वर्ष 2022-23 के बीच ब्याज व्यय में 38% की वृद्धि जारी रहने की उम्मीद है। यदि इसके अतिरिक्त उधार लेने से ब्याज दरों में वृद्धि होती है, तो यह केवल सरकार की ऋण सेवा समस्याओं को बढ़ाएगा। सरकार की उधारी की घोषणा से आरबीआई पर भी दबाव पड़ता है। यदि आरबीआई ब्याज दरों को नियंत्रण में रखने के लिए सरकारी प्रतिभूतियों को खरीदना फिर से शुरू करता है, तो इससे सिस्टम में और भी अधिक तरलता आएगी, और आरबीआई के लिए मुद्रास्फीति को नियंत्रित करना मुश्किल हो जाएगा क्योंकि क्रेडिट मांग बढ़ जायेगी। दूसरी ओर, यदि आरबीआई अपनी मुद्रा नीति को सख्त करता है, तो बॉन्ड दरें कड़ी हो जाएंगी, जिससे सरकार के लिए उधार लेना कठिन हो जाएगा। यदि सरकार के उधार लेने संबंधी कार्यक्रम के कारण दरों में वृद्धि जारी रहती है, तो क्षमता उपयोग में सुधार और ऋण की मांग में वृद्धि से निजी क्षेत्र का बहिर्गमन हो सकता है। यह देखा जाना बाकी है कि अंत में कौन-सा प्रभाव हावी होगा- सरकार द्वारा पूंजीगत व्यय को बढ़ावा दिए जाने के कारण निजी क्षेत्र में सघनता होगी, या पूंजी की बढ़ती लागत के कारण निजी क्षेत्र का बहिर्गमन हो रहा है।
वित्तीय रणनीति: मध्यम अवधि का कार्यक्रम
बड़े पैमाने पर उधार लेने की योजना के अलावा, बजट की एक और उल्लेखनीय विशेषता मध्यम अवधि की राजकोषीय रणनीति में कमी थी।
बढ़ते कर्ज के बोझ को देखते हुए, सरकार को एक योजना बनानी चाहिए थी, जिसमें यह संकेत दिया गया हो कि वह किस प्रकार से और कब अपने घाटे एवं कर्ज को महामारी-पूर्व के स्तर पर वापस लाने की योजना बना रही है। लेकिन बजट में ऐसी किसी रणनीति पर ध्यान नहीं दिया गया है। इस संदर्भ में दो मुद्दे सामने आते हैं।
राजकोषीय स्थिति को बहाल करने का सबसे अच्छा तरीका तेजी से आर्थिक विकास करना है, क्योंकि इससे लोगों की आय में वृद्धि होगी, जिससे सरकार के लिए पर्याप्त राजस्व सुनिश्चित होगा, और मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम)2 जैसे सामाजिक कार्यक्रमों पर खर्च करने की आवश्यकता कम हो जाएगी। लेकिन यह संदेहास्पद है कि पूंजीगत व्यय को बढ़ावा दिए जाने-सहित भी संरक्षणवाद की रणनीति, निजी निवेश को पुनर्जीवित करने और मजबूत विकास उत्पन्न करने में सफल होगी।
एक सुसंगत विकास रणनीति के अभाव में, ऋण चुकाने का एक तरीका विनिवेश के माध्यम से होता। फिर भी, बजट में विनिवेश के लिए कोई नई, बड़ी घोषणा नहीं की गई। वास्तव में, विनिवेश कार्यक्रम से राजस्व में भारी गिरावट होने का अनुमान है जो वित्तीय वर्ष 2021-22 के बजट में 1.75 लाख करोड़ रुपये अनुमानित था वह वित्तीय वर्ष 2022-23 में केवल 65,000 करोड़ रुपये होने की प्रत्याशा है। सरकार ने वर्ष 2021-22 के बजट में 6 लाख करोड़ रुपये के परिसंपत्ति मुद्रीकरण कार्यक्रम की भी घोषणा की थी, लेकिन इस साल के बजट में इस कार्यक्रम का अलग से कोई और उल्लेख नहीं किया गया। इससे सरकार की निजीकरण योजनाओं और भविष्य की विनिवेश रणनीति के बारे में चिंता निर्माण होती है।
निष्कर्ष
संक्षेप में,घरेलू और वैश्विक मैक्रोइकॉनॉमिक संदर्भ को देखते हुए, सरकार द्वारा बजट में पूंजीगत व्यय को बढ़ावा देना एक सही दिशा में कदम प्रतीत होता है। हालांकि, आयात प्रतिस्थापन और संबद्ध संरक्षणवाद पर बजट के निरंतर फोकस का तर्क संदिग्ध है। इसे देखते हुए, बजट में एक सुसंगत विकास रणनीति का अभाव है, जो कि वर्तमान में विशेष रूप से सरकारी ऋण के उच्च स्तर को देखते हुए आवश्यक थी।
बजट में घोषित बड़े पैमाने पर उधार लेने के कार्यक्रम के मद्देनजर, सरकारी बॉन्ड में अधिक से अधिक विदेशी निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए पूंजी नियंत्रण में ढील देना अनिवार्य हो गया है। आरबीआई ने 10 फरवरी 2022 को अपनी मुद्रा नीति पेश करते समय इस संबंध में कुछ घोषणा की थी, लेकिन उधार की आवश्यकता की मात्रा को देखते हुए अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है।
सरकार ने एक दांव लगाया है कि पूंजीगत व्यय को बढ़ावा देने से नौकरियों और विकास को बढ़ावा मिलेगा। यदि ऐसा होता है, तो यह अर्थव्यवस्था के लिए अनुकूल होगा। लेकिन यदि नहीं, तो अर्थव्यवस्था में उच्च राजकोषीय घाटा, बड़ी मात्रा में कर्ज, बढती मुद्रास्फीति का दबाव और संभावित रूप से बढ़ता चालू खाता घाटा रह जाएगा, जो उस स्थिति में व्यापक आर्थिक संकेतकों का एक अच्छा संयोजन नहीं होगा जब अमेरिकी फेडरल रिजर्व कम होने वाला है।
क्या आपको हमारे पोस्ट पसंद आते हैं? नए पोस्टों की सूचना तुरंत प्राप्त करने के लिए हमारे टेलीग्राम (@I4I_Hindi) चैनल से जुड़ें। इसके अलावा हमारे मासिक समाचार पत्र की सदस्यता प्राप्त करने के लिए दायीं ओर दिए गए फॉर्म को भरें।
टिप्पणियाँ:
- हालांकि, पूंजीगत व्यय में वृद्धि की सही सीमा बहस का विषय बनी हुई है।
- मनरेगा एक ऐसे ग्रामीण परिवार को एक वर्ष में 100 दिनों के वेतन-रोजगार की गारंटी प्रदान करता है, जिसके वयस्क सदस्य निर्धारित न्यूनतम मजदूरी पर अकुशल शारीरिक कार्य करने के इच्छुक होते हैं।
लेखक परिचय: डॉ. राजेश्वरी सेनगुप्ता भारत के मुंबई में इंदिरा गांधी विकास अनुसंधान संस्थान (IGIDR) में अर्थशास्त्र की एसोसिएट प्रोफेसर हैं।


















































































