क्‍या एक व्‍यापक लॉकडाउन का कोई उचित विकल्‍प है?

01 April 2020
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कोविड-19 के खिलाफ भारत की लड़ाई में, हम दो विकल्पों में से अनिवार्यत: एक का चयन कर रहे हैं, एक ओर सामाजिक दूरी और दूसरी ओर लोगों को अपनी आजीविका से वंचित करना। सामान्य तथा अनिवार्य लॉकडाउन की अस्थिरता को स्वीकार करते हुए, देबराज रे और सुब्रमण्यन एक प्रस्ताव रखते हैं जिसके तहत युवाओं को कानूनी रूप से काम करने की अनुमति दी जाती है और अंतर-पीढ़ी संचरण से बचने के लिए उपायों के केंद्र को घरों पर स्थानांतरित कर दिया जाता है।

संकट के इस समय में, यह परम अनिवार्य है कि (क) हमारे प्रयासों को उन नीतियों पर केंद्रित किया जाए जो व्‍यवहार्य हों; (ख) ऐसे उपायों से बचा जाए जो अधिकांश नागरिकों के लिए असहनीय हों; (ग) उत्तरजीविता की आवश्यकता से उत्पन्न निजी कार्यों को अपराध न माना जाए; और (घ) राज्य की मंशा को विश्वसनीय, स्पष्ट और विशिष्ट शब्दों में संप्रेषित किया जाए।

यह संक्षिप्त पोस्ट कोविड-19 के खिलाफ भारत की लड़ाई में एक विशेष मुद्दे को संबोधित करता है, जिसे कई प्रेक्षकों द्वारा नोट किया गया है। लॉकडाउन लोगों के बीच "सामाजिक दूरी" सुनिश्चित करने का एक शक्तिशाली तरीका है, जिसके द्वारा वायरल संक्रमण की दर और पहुंच को कम किया जा सकता है। लेकिन व्यापक लॉकडाउन के सामान्य अर्थव्यवस्था-व्यापी लागतें और घरेलू-विशिष्ट बोझ अत्‍यधिक भारी हैं। उत्‍तरोत्‍तर व्‍यापक आर्थिक मंदी तो एक निश्चित परिणाम है ही, लेकिन हम घरेलू आय, रोजगार और पोषण से संबंधित उस तनाव के फैलाव के बारे में सोच रहे हैं जो अंततः मानव जीवन के पैमाने पर मापा जाता है, रुपये के पैमाने पर नहीं।

जीवन की सुरक्षा भौतिक नुकसान से पहले आती है, इसलिए यह स्वयंसिद्ध है कि सामान्य लॉकडाउन को लागू करने से पहले सबसे सही कदम मुख्य रूप से गरीबों की भौतिक सुरक्षा की रक्षा के लिए कल्याणकारी उपायों की एक व्यापक योजना को लागू करना है। फिर भी सूचनाएं, लक्ष्यीकरण, और अनौपचारिकता भी विचारणीय विषय हैं जो किसी भी सरकार के लिए, चाहे वो कितने अच्‍छी नीयत वाले हों, इन्‍हें लागू करना अत्‍यंत कठिन बनाते हैं। अंततः, हम दो विकल्‍पों में से अनिवार्यत: एक का चयन कर रहे हैं, एक ओर सामाजिक दूरी और दूसरी ओर लोगों को अपनी आजीविका से वंचित करना।

यह अविश्वसनीय रूप से एक मुश्किल विकल्प है। यह अमेरिका जैसे समृद्ध देशों में भी आसान नहीं है, जहां आय का वितरण अत्यधिक असमान है, और सामाजिक ताना-बाना इस प्रकार का है कि व्यापक और जानलेवा कष्ट (लॉकडाउन के तहत) एक वास्तविक संभावना है। ये चिंताएं भारत में कई गुना अधिक हैं। यह देखते हुए कि अधिकांश नौकरियों और व्यवसायों के लिए किसी न किसी रूप में पारस्परिक संपर्क अपरिहार्य है, एक सामान्य अनिवार्य लॉकडाउन संभव नहीं हो सकता है। कई प्रेक्षकों ने इस मुख्य बात सामने रखी है, हम उनसे पूरी तरह सहमत हैं, और इसमें कुछ चीजें और जोड़ रहे हैं।

इस संदर्भ में हम निम्नलिखित प्रस्ताव को महत्वपूर्ण मूल्यांकन के लिए प्रस्‍तुत करना चाहेंगे। हम इसके बारे में हठधर्भी नहीं हैं। अन्‍य किसी प्रस्ताव की तरह, इसकी भी अपनी सीमाएँ हैं; विशेष रूप से नीचे दिए गए बिंदु 4 चर्चित बातें देखें। लेकिन, हम इसे मौलिक रूप से अपूर्ण दुनिया में निरुद्ध समाधान की भावना से पेश करते हैं।

  1. सभी उपलब्ध आंकड़ों से पता चलता है कि कोविड-19 से 20 और 40 वर्ष की आयु के लोगों की मृत्यु दर, इन्फ्लूएंजा से होने वाली सभी उम्र के लोगों की समग्र मृत्यु दर के बराबर है। यदि इन्फ्लूएंजा की उपस्थिति में सभी उम्र के लोगों का स्वतंत्र रूप से घूमना स्वीकार्य है, तो वर्तमान समय में भारत में 40 वर्ष से कम आयु के सभी वयस्कों को स्वतंत्र रूप से काम करने के अनुमति (दबाव नहीं) देना स्‍वीकार्य होना चाहिए। यह एक आदर्श परिणाम नहीं है, लेकिन यह औचित्‍यपूर्ण मध्‍यमार्ग है, और इसे आसानी से मॉनिटर किया जा सकता है (उदाहरण के लिए, एक आधार कार्ड जन्म के वर्ष को बताता है)।
  2. इस उपाय को रोगप्रतिकारक परीक्षण द्वारा पूरक किया जा सकता है और निश्चित रूप से करना चाहिए क्‍योंकि इस तरह के परीक्षण व्यापक रूप से उपलब्ध हैं, और चूंकि लोगों में निहित रोगप्रतिकारक क्षमता में वृद्धि होती है। रोगप्रतिकारक परीक्षण के तहत प्रमाणित सभी व्‍यक्तियों को काम करने की अनुमति दी जानी चाहिए।
  3. बाद में, जब संक्रमण दर कम हो जाए, तो कार्य-अनुमति (वर्क-पर्मिट) हेतु 'आयु स्तर को बढ़ाने' के लिए नए उपाय लागू किए जा सकते हैं।
  4. वृद्धों और अत्‍यधिक कम आयु के सदस्‍यों की सुरक्षा परिवारों पर छोड़ देनी चाहिए, जिनके पास प्रोत्साहन और प्रेरणा प्रदान करने और ऐसी सुरक्षा की निगरानी करने के लिए युक्त होंगे, और आगे जिन्‍हें स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं द्वारा घर-घर जा कर राज्य द्वारा उपलब्‍ध कराई जा रही सेवा प्रदान कर समर्थित किया जाएगा।

इसमें स्‍व-चयन का एक रूप शामिल है: जो लोग आसानी से घर पर रहने का विकल्‍प चुन सकते हैं, वे घर पर रहेंगे, जबकि जो ऐसा नहीं कर सकते वे काम पर जाने का विकल्प चुनेंगे। कई स्‍व-चयन परिणामों की तरह, दुर्भाग्य से यह भी हमारे नागरिकों द्वारा सामना की जाने वाली स्वाभाविक असमान संभावनाओं से प्रभावित है: गरीब मजूदर काम करने का विकल्प चुनेंगे जबकि इसके विपरीत अधिक सुरक्षित लोग घर पर रुकने का विकल्प चुनेंगे। लेकिन कम से कम गरीब मजदूर बेरोजगारी, आय-हानि, भूख, और जानलेवा आर्थिक कमी की अनैच्छिक आकस्मिकताओं का सामना तो नहीं करेंगे।

इस प्रस्ताव का अत्‍यधिक लाभ निसंदेह पर्याप्त है: यह अधिकांश भारतीय परिवारों को जीवन-रेखा बचाए रखने की अनुमति देता है, और ऐसा करने में यह एक उपाय सुझाता है जो समान, संतुलित और उपयोगी रूप से कार्यान्वयन योग्य है। हम यहां संभावित कमियों के दो बिंदुओं पर प्रकाश डालते हैं, जिन पर अंतिम मूल्यांकन निर्भर करता है।

इस बात की क्या गारंटी है कि इस नीति के तहत बुजुर्गों को पर्याप्त सुरक्षा दी जाएगी?

इसका जवाब यह है कि कोई गारंटी नहीं है। किसी भी नीति के तहत अंतर-पीढ़ी संपर्क से पूरी तरह से नहीं बचा जा सकता है। एक पूर्ण लॉकडाउन पर विचार करें। कोई भी इसका पालन करने का बोझ नहीं उठा सकता। देखते ही गोली मारने जैसे क्रूर आदेशों को छोड़कर, दुकानें फिर से खुलेंगी, युवा और बूढ़े दोनों काम करेंगे। (अस्तित्व के विचार से आवश्यक कार्यों को आपराधिक मानने का कष्टदायक परिणाम पहले से ही साक्ष्‍य में हैं।) इसकी तुलना उस स्थिति से करें, जिसमें युवाओं को कानूनी तौर पर काम करने की अनुमति है। फिर संचरण का केंद्र घर और परिवार की ओर चला जाता है।

इन दोनों केंद्रों की तुलना कैसे होती है यह बहस का विषय है। हमारे पास यह अनुमान लगाने के लिए आंकड़े नहीं है कि कौन सा उपाय बुजुर्गों में संचरण का ज्यादा जोखिम पैदा कर सकता है। लेकिन यहाँ हम यह कह सकते हैं कि हमारे प्रस्ताव से वृद्ध व्यक्तियों को प्रत्यक्ष कार्यबल से बाहर कर दिया जाता है, और यह परिवार के भीतर सुरक्षात्मक उपायों की बात करता है, न कि परिवारों के बीच। वास्तव में, समुदाय में चिकित्सा कर्मियों और संक्रमित होने के संदेह वाले व्यक्तियों के साथ समाज की हाल की प्रतिक्रियाओं को देखते हुए, हम ऐसे किसी भी कदम से बेहद सावधान रहेंगे जो परिवारों में सामाजिक परोपकारिता पर निर्भर हैं। जबकि कोई उपाय आदर्श नहीं है, हमारा उपाय सामाजिक भलाई की एक सामान्य धारणा के बजाय परिवारों के स्‍व–हित पर निर्भर करता है।

युवाओं बनाम वृद्धों की बात को अलग रख दें, तो किसी भी हाल में, क्या एक व्यापक लॉकडाउन के सापेक्ष इस उपाय से कोविड-19 की समग्र घटना में वृद्धि नहीं होगी?

हाँ, होगी। परंतु, ऐसे समय में कोई भी उपाय सर्वश्रेष्ठ नहीं है। रोग की घटनाओं को कम करने के लिए एक सुनिश्चित तरीका एक पूर्ण और अच्छी तरह से लागू किया लॉकडाउन हीं है। लेकिन, पिछले वाक्य में चिन्हित किए गए वाक्यांश के अनुसार इसकी असंभवता को देखते हुए भी - क्या वास्तव में हम ऐसा करना चाहते हैं? क्या हमें उस भारी बोझ को अनदेखा कर देना चाहिए जो अधिकांश भारतीय जनता पर व्यापक लॉकडाउन से होगा और जिससे उन्हें न केवल आर्थिक, बल्कि मानव जीवन और पीड़ा सहनी पड़ेगी?

लेखक परिचय: देबराज रे फ़ैकल्टि ऑफ आर्ट्स अँड साइन्स के सिल्वर प्रोफेसर, और न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र के प्रोफेसर हैं। एस. सुब्रमण्यन मद्रास इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट स्टडीज (एमआईडीएस) से सेवानिवृत्त प्रोफेसर तथा भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद के पूर्व राष्ट्रीय फैलो हैं।

लोक स्वस्थ्य

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