वर्तमान सरकार ने, सीमित सफलता के साथ, वर्ल्ड बैंक के डूइंग बिजनेस संकेतकों में भारत की रैंकिंग को सुधारने का प्रयास किया है। यह लेख बताता है कि राज्य और कारोबारों के बीच 'सौदे' - नियमों के बजाय - राज्य-व्यापार संबंध का विवरण प्रस्तुत करते हैं। कमजोर गुणवत्ता शासन वाले भारतीय राज्यों में लाइसेंस प्राप्त करने की गति के मामले में 'अच्छे सौदों’ का अनुपात अधिक है। इसी प्रकार आवश्यक नहीं है कि कारोबार नियमों को आसान बनाने से उच्च उत्पादकता प्राप्त हो।
कोविड-19 के बाद दुनिया में वैश्विक आर्थिक पुनर्गठन की संभावनाओं ने भारत सरकार का ध्यान उसके प्रमुख कार्यक्रम ‘मेक इन इंडिया’ की ओर पुन: आकर्षित किया है। लॉकडाउन के दौरान अपने मंत्रिपरिषद से बात करते हुए, प्रधान मंत्री मोदी ने जोर देकर कहा है कि यह संकट, वास्तव में, इस पहल को बढ़ावा देने का एक अवसर है। मोदी सरकार द्वारा 2014 में शुरू किया गया मेक इन इंडिया कार्यक्रम, नियामक लाल फीताशाही को हटाकर तथा विश्व बैंक की डूइंग बिजनेस (डीबी) रिपोर्ट के संगत व्यापार अनुकूल नए नियमों को लागू करके भारत में 'ईज ऑफ डूइंग बिजनेस' को बढ़ाने का एक प्रयास है। हालाँकि इस कार्यक्रम ने अब तक बहुत सीमित सफलता प्राप्त की है। इस शोध (राज एवं अन्य 2020) में, हम इस परिणाम के पीछे दो महत्वपूर्ण कारकों को उजागर करते हैं। सबसे पहले हॉलवर्ड-ड्रिम्एयर और प्रीचेट (2015) द्वारा विकसित एक फ्रेमवर्क का उपयोग करते हुए हम प्रदर्शित करते हैं कि सरकार द्वारा अपनाए गए कानूनी (संविदात्मक) नियम और विनियम भारत में कारोबारी माहौल का यथार्थवादी विवरण प्रदान नहीं करते हैं। दूसरा, राष्ट्रीय सरकार द्वारा लिए गए नीतिगत निर्णयों को भारतीय राज्यों में उसी उत्साह के साथ लागू नहीं किया जाता है, जहाँ नीतियों का अधिकांश क्रियान्वयन होता है। नीचे दिए गए खंडों में हम दिखाते हैं कि कैसे इन कारकों ने इस कार्यक्रम को कमजोर कर दिया है।
भारतीय राज्यों में कारोबार करना
उद्यम सर्वेक्षण डेटा का उपयोग करते हुए हम भारत में एक ऑपरेटिंग लाइसेंस प्राप्त करने के लिए आवश्यक दिनों के राज्य-वार कर्नेल घनत्व प्लॉट1 पेश करते हैं (आकृति 1)। इन आंकड़ों में लंबवत रेखा इन राज्यों में कानूनी डीबी मानों का प्रतिनिधित्व करती है। आंकड़ों से यह पता चलता है कि भारत में कारोबार स्थापित करने के लिए औसतन 24 दिनों का समय लगता है, जो विभिन्न राज्यों में व्यापक रूप से बदलता है। उड़ीसा और आंध्र प्रदेश में एक कारोबार स्थापित करने में लगने वाला औसत समय क्रमशः 1 और 3 दिन है, जबकि तमिलनाडु और पंजाब के लिए यह समय क्रमशः 40 और 38 दिन है। इसके अलावा, हम एक ऑपरेटिंग लाइसेंस प्राप्त करने में लगने वाले समय में उल्लेखनीय रूप से व्यापक बदलाव देखते हैं। उदाहरण के लिए- बिहार में यह ज्ञात होता है कि फर्मों के 10वें पर्सेंटाइल सेट को एक दिन में ऑपरेटिंग लाइसेंस प्राप्त होता है, जबकि फर्मों के 90वें पर्सेंटाइल सेट को ऑपरेटिंग लाइसेंस प्राप्त करने में 90 दिन लगते हैं। आकृति 1 से यह भी स्पष्ट है कि बहुत बड़ी संख्या में फर्मों के लिए, एक ऑपरेटिंग लाइसेंस प्राप्त करने का समय राज्य स्तरीय डीबी संकेतकों में दर्शाए गये समय की तुलना में काफी कम है।
हम इन निष्कर्षों की व्याख्या कैसे करते हैं? हॉलवर्ड-ड्रिम्एयर और प्रीचेट (2015) के बाद हम 'नियम’-आधारित परिणामों, जो डीबी संकेतकों के अनुरूप होते हैं, तथा कारोबारों और राज्य के बीच 'सौदों' पर आधारित परिणामों, जो इन 'नियमों' के साथ असंगत हैं, के बीच अंतर करते हैं। सौदे, नियम-आधारित परिणामों से दो प्रकार से अलग हैं। पहला यह कि, नियम, राज्य और कारोबारों के बीच निर्वैयक्तिक संवाद हैं, जबकि सौदे व्यवसायों और राजनीतिक नेताओं या नौकरशाही के बीच एक व्यक्तिगत संबंध पर आधारित हैं। दूसरा यह कि, नियम, आमतौर पर सभी प्रासंगिक कारोबारों के लिए समान होते हैं, जबकि सौदे प्रत्येक मामले की प्रकृति के आधार पर मामले-दर-मामले अलग-अलग होते हैं। स्पष्ट रूप से ऑपरेटिंग लाइसेंस प्राप्त करने के लिए आवश्यक दिनों की संख्या में व्यापक बदलाव और डीबी संकेतकों के साथ किसी भी संबंध की कमी, दृढ़ता से ये सुझाव देते हैं कि भारतीय राज्यों में कानूनी विनियामक नियमों के बजाय राज्य के साथ फर्मों द्वारा किए गए वस्तुत: सौदे कारोबार-राज्य संबंध का विवरण प्रस्तुत करते हैं।
आकृति 1. कर्नेल घनत्व प्लॉट, ऑपरेटिंग लाइसेंस


टिप्पणियां: (i) प्लॉटों में लंबवत रेखा मानकीकृत कारोबार के वास्तविक ऑपरेशन के लिए आवश्यक समय के कानूनी डीबी मानों का प्रतिनिधित्व करती है। चूंकि ऊर्ध्वाधर रेखा उड़ीसा और आंध्र प्रदेश के लिए प्रतिदर्श प्रेक्षणों से आगे चली जाती है, इसलिए दोनों राज्यों के लिए ऊर्ध्वाधर रेखा प्रस्तुत नहीं की गई है। जहां तक गुजरात का संबंध है, डेटासेट में ऑपरेटिंग लाइसेंस का कोई प्रेक्षण नहीं है।
(ii) एपी - आंध्र प्रदेश, यूपी - उत्तर प्रदेश, एमपी - मध्य प्रदेश, टीएन - तमिलनाडु, डब्ल्यू बी- पश्चिम बंगाल।
इसके बाद हम प्रत्येक राज्य में सौदों के लिए माहौल की गुणवत्ता की विशेषता के संदर्भ में बताते हैं कि उस राज्य में फर्म कितनी जल्दी एक ऑपरेटिंग लाइसेंस प्राप्त कर सकती हैं2। हम तीन प्रकार के सौदों को परिभाषित करते हैं - अर्थात् अच्छे, मध्यम और बुरे सौदे। एक अच्छा सौदा ऐसा होता है जिसमें फर्मों को 15 दिनों के भीतर अपना ऑपरेटिंग लाइसेंस मिल जाता है। इसी तरह अगर फर्मों को 15 से 45 दिनों के बीच लाइसेंस मिलता है, तो हम इसे एक मध्यम सौदे के रूप में परिभाषित करते हैं। अंत में, यदि फर्मों को लाइसेंस प्राप्त करने में 45 दिन से अधिक समय लगता है, तो हम इसे एक बुरे सौदे के रूप में परिभाषित करते हैं। जैसा कि आकृति 2 से स्पष्ट है- भारत में राज्यों में सौदा करने में व्यापक भिन्नता है। उदाहरण के लिए- उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में बुरे सौदों (0%) की तुलना में उच्च सौदों (100%) की संख्या अधिक है, जबकि केरल जैसे राज्य में बुरे सौदों (48%) की तुलना में अच्छे सौदों की संख्या कम (33%) है।
आकृति 2. राज्य अनुसार सौदों के प्रकार

नोट: अच्छे सौदे: ऑपरेटिंग लाइसेंस प्राप्त करने के लिए दिनों की संख्या (एनडी) <= 15;
मध्यम सौदे: 15 <एनडी <= 45; और बुरे सौदे: 45 <एनडी।

कमजोर शासन, बेहतर सौदे
भारतीय राज्यों में सौदा करने में इस व्यवस्थित बदलाव को कैसे समझा जा सकता है? हम शासन की भूमिका पर ध्यान केंद्रित करते हैं, जिसे विकासशील देशों में व्यापक रूप से कारोबार माहौल के प्रमुख निर्धारक के रूप में देखा जाता है। शासन दो संभावित तरीकों से सौदे को प्रभावित कर सकता है। एक तरीका यह हो सकता है कि उच्च प्रशासनिक क्षमता वाले राज्य अधिक कुशल अनुमोदन या क्रियान्वयन प्रक्रियाओं के कारण एक ऑपरेटिंग लाइसेंस या निर्माण परमिट जारी करने में लगने वाले समय को कम करने में सक्षम हैं। यह मामला अधिक मजबूत राज्यों का होगा जो नियामक अनुमोदनों के लिए अपनी नीतियों को अधिक कुशल तरीके से संचालित करने में सक्षम होंगे। एक दूसरा तरीका यह हो सकता है कि कमजोर शासन वाले राज्यों में बेहतर सौदे देखे जाते हैं क्योंकि इन राज्यों में फर्मों ने निवेश अनुमोदन के लिए जिम्मेदार नौकरशाहों के साथ सांठ-गांठ वाले संबंध विकसित कर लिए हैं। यह मामला अधिक शक्तिशाली कारोबारियों द्वारा कमजोर नौकरशाही पर कब्जा करने का हो सकता है।
इन वैकल्पिक परिकल्पनाओं का परीक्षण करने के लिए हम सौदे के माहौल की गुणवत्ता और शासन की गुणवत्ता के वैकल्पिक उपायों के बीच संबंधों की जांच करते हैं। हम पाते हैं कि बेहतर शासित राज्यों में फर्मों को ऑपरेटिंग लाइसेंस प्राप्त करने में अधिक देरी का अनुभव होता है। हमारे परिणाम सामान्य धारणा का समर्थन नहीं करते हैं कि बेहतर प्रशासन से भारत में अच्छा कारोबार होता है। इसके बजाय, वे संकेत देते हैं कि अच्छा सौदा बनाना राज्य के उच्च स्तरों पर कब्जा एवं प्रशासनिक भ्रष्टाचार का परिणाम है और अच्छे सौदे कमजोर शासन के वातावरण में अधिक प्रचलित हैं। दूसरे शब्दों में, अच्छे सौदे वहां आते हैं जहां नौकरशाह तथा राजनेता निजी क्षेत्र के साथ अनौपचारिक रूप से जुड़ने के इच्छुक हैं और ये संभवतः कमजोर या भ्रष्ट राज्य प्रशासन के परिणाम हैं।
राज्य-व्यापार सौदे और उत्पादकता
हमारे निष्कर्ष इस पूर्वाग्रह को चुनौती देते हैं कि बेहतर शासित राज्यों में प्रचालित फर्मों द्वारा अच्छे सौदे किए जाते हैं। हालांकि यह तर्क दिया जा सकता है कि यदि ये अधिक उत्पादक कंपनियां हैं जो इस शासन विफलता के कारण कम समय के भीतर अपने ऑपरेटिंग लाइसेंस या निर्माण परमिट प्राप्त कर रही हैं, तो इस तरह का सौदा करना जरूरी नहीं है कि बुरा हो क्योंकि उत्पादकता और विकास के रूप में इसके सकारात्मक प्रभाव होते हैं। क्या कोई सबूत है कि वास्तव में ऐसा ही हो रहा है? इसे समझने के लिए, हमें अच्छे सौदों और फर्मों के प्रदर्शन के बीच संबंधों को देखना होगा। विशेष रूप से, क्या ऐसी फर्में उच्च उत्पादकता भी दिखाती हैं जो बेहतर सौदों को आगे बढ़ाने में सफल होती हैं?
हम इस परिकल्पना का परीक्षण कंपनियों की श्रम उत्पादकता और राज्य स्तर पर सौदा-निर्माण की गुणवत्ता के बीच संबंधों की जांच करके करते हैं। हम सौदा-निर्माण पर शासन की गुणवत्ता की भूमिका को दो प्रकार से देखते हैं - अपने आप में और सौदों की गुणवत्ता के साथ मिलकर। हमारे विश्लेषण में, हम फर्म के आकार और उस उद्योग को ध्यान में रखते हैं जिसमें फर्म स्थित है। हम पाते हैं कि अच्छे सौदे बेहतर फर्म प्रदर्शन से जुड़े हैं। हमें यह भी पता चलता है कि फर्म के प्रदर्शन के साथ अच्छे सौदों का सकारात्मक जुड़ाव कम हो जाता है क्योंकि शासन की गुणवत्ता बढ़ जाती है। इसके अलावा हमारे परिणामों के आधार पर एक साधारण गणना हमें दिखाती है कि अच्छे सौदों से भारत के अधिकांश राज्यों में उत्पादकता कम होती है। इस प्रकार, हम अपने परिणामों से यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि भारत के अधिकांश राज्यों के लिए बेहतर सौदों से कम उत्पादकता होती है।
नीतिगत निहितार्थ
हमारे शोध से पता चलता है कि कानूनी नियमों के बजाय वस्तुत: सौदे भारतीय राज्यों में व्यापार-राज्य संबंधों का विवरण प्रस्तुत करते हैं क्योंकि इससे कई फर्मों के लिए ऑपरेटिंग लाइसेंस प्राप्त करने हेतु वास्तविक दिनों की संख्या कानूनी नियमों एवं विनियमों द्वारा दिए गए दिनों की तुलना में काफी कम है। इसके अलावा, कमजोर क्षमता वाले राज्यों में बेहतर सौदा वातावरण आनुपातिक रूप से अधिक देखा जाता है जो यह सुझाव देता है कि ज्यादातर उन राज्य सरकारों पर व्यावसायिक हितों द्वारा कब्जा कर लिया जाता है, जिनका शासन खराब है। अंत में, बेहतर सौदे अधिकांश राज्यों में कम-उत्पादक कंपनियों के पास जाते हैं जो यह बताता है कि अच्छे सौदे आवश्यक रूप से वृद्धि को बढ़ाने वाले नहीं होते हैं। यह भारतीय विनिर्माण परिदृश्य में स्वस्थ विकास को खतरे में डालता है क्योंकि सबसे अधिक अनुत्पादक फर्म नियामक वातावरण में हेरफेर करके अधिक उत्पादक फर्मों को कमजोर और प्रतिस्पर्धा से बाहर करने में सक्षम हो जाती हैं। इसके अलावा, इस तरह का विनियामक कब्जा इन राज्य सरकारों की शासन क्षमता में सुधार के लिए संरचनात्मक रूप से हतोत्साहित भी करता है। यह भारतीय राज्यों में खराब प्रशासन और भारतीय व्यापार क्षेत्र में अनुत्पादक विकास के दुष्चक्र को लगातार बनाए रखता है। इस प्रकार, हमारे परिणाम बताते हैं कि जब तक भारत में कारोबारी माहौल का वर्णन इस प्रकार के सौदों द्वारा किया जाता रहेगा तब तक सरकार द्वारा ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम को बढ़ावा देने के लिए किए गए संस्थागत सुधार सफल होने की संभावना नहीं है।
टिप्पणियाँ:
- कर्नेल घनत्व प्लॉट एक दृश्य प्रतिरूप है कि कैसे एक चर के मान (हमारे अध्ययन में, फर्मों के अनुपात) दूसरे चर को मापने वाले पैमाने पर वितरित किए जाते हैं (हमारे अध्ययन में, एक ऑपरेटिंग लाइसेंस प्राप्त करने के लिए आवश्यक दिनों की संख्या)। यह दृश्य प्रतिरूप एक अनुमान प्रक्रिया पर आधारित है जो वैकल्पिक समकारी कार्यों (कर्नेल कार्य कहा जाता है), और समकारी मापदंडों (जिसे बैंडविंड्थ्स कहा जाता है) को चुन सकता है, जो अलग-अलग बिन आकार को निर्धारित करता है, जिस पर यह अनुमान लगाया जाता है।
- अध्ययन में, हम निर्माण परमिट का उपयोग करते हुए भी एक समान प्रक्रिया अपनाते हैं।
लेखक परिचय: कुणाल सेन, 2019 से संयुक्त राष्ट्र विश्वविद्यालय-वाइडर के निदेशक हैं और यूनिवर्सिटी ऑफ मैनचेस्टर के ग्लोबल डेव्लपमेंट इंस्टीट्यूट में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर हैं। सब्यसाची कर, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फ़ाइनेंस एंड पॉलिसी में आर.बी.आई. (भारतीय रिजर्व बैंक) चैर प्रोफेसर हैं और मैनचेस्टर यूनिवरसिटि में मानद वरिष्ठ अनुसंधान फेलो भी हैं। राजेश राज एस.एन., सिक्किम विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग में असोसिएट प्रोफेसर हैं।





















































































