विकास के मुख्यधारा के सिद्धांत अधिक समरूप परिस्थितियों में सार्वजनिक साधनों में योगदान करने की अधिक इच्छा को दर्शाते हैं। दिल्ली की झुग्गियों में किए गए एक अध्ययन के निष्कर्षों को इस लेख में प्रस्तुत किया गया है, जिसमें यह आकलन किया गया है कि हिन्दू और मुसलमान सामुदायिक स्वच्छता की पहलों में योगदान को बढ़ावा देने वाले सामाजिक दबाव पर कैसे प्रतिक्रिया देते हैं। सैद्धांतिक परिकल्पना के विपरीत, यह अध्ययन बताता है कि मुसलमानों में सामाजिक जवाबदेही तंत्र अधिक प्रभावी हैं जो शत्रुतापूर्ण सामाजिक-राजनीतिक वातावरण से निपटने में अल्पसंख्यकों द्वारा अपनाई गई रणनीतियों को दर्शाता है।
समकालीन भारत में मुसलमान संभवतः सबसे ज़्यादा सताए जाने वाले समूह हैं। विभाजन के बाद से ही राष्ट्र के प्रति उनकी वफ़ादारी पर लगातार सवाल उठाए जाते रहे हैं। अन्य हाशिए पर पड़े समूहों ने आज़ादी के बाद उल्लेखनीय प्रगति की है, जबकि मुसलमानों के लिए अंतर-पीढ़ीगत गतिशीलता समय के साथ कम होती गई है (एशर एवं अन्य 2024)। साथ ही, इस समुदाय ने हाल के वर्षों में घृणा अपराध में वृद्धि का अनुभव किया है (रामचंद्रन 2020)। कोई यह तर्क दे सकता है कि 'बड़े दंगे' अतीत की बात हो गए हैं, या लिंचिंग की घटनाएं अपेक्षाकृत बहुत कम हो गई हैं। लेकिन शांतिपूर्ण अवधि में भी रोज़मर्रा का भेदभाव मुसलमानों के जीवन के लगभग सभी पहलुओं अर्थात वे कहाँ रहते हैं, किसके साथ जुड़ते हैं और वे बातचीत को कैसे अंजाम देते हैं, को प्रभावित करता रहा है। क्या हमें यह उम्मीद करनी चाहिए कि 'उत्पीड़ित अल्पसंख्यक' के रूप में मुसलमानों की स्थिति, सामुदायिक कल्याण में योगदान के प्रति उनके दृष्टिकोण को भी आकार देगी? यह सवाल शहरी क्षेत्रों में विशेष रूप से प्रासंगिक है जहाँ लोग एक-दूसरे से सटे हुए जीते हैं और स्थानीय शासन की क्षमता कम होती है। ऐसे सन्दर्भों में, अलग-अलग पृष्ठभूमि वाले पड़ोसियों के साथ मिलकर काम करना अक्सर कचरा संग्रहण या नाली की सफाई जैसी स्थानीय सेवाओं का ध्यान रखने का एकमात्र तरीका होता है।
सन्दर्भ और शोध डिज़ाइन
हमने इस पहेली पर प्रकाश डालने के लिए, दिल्ली की पाँच झुग्गी बस्ती क्षेत्रों की 16 बस्तियों (या समुदायों) में एक सर्वेक्षण आधारित प्रयोग किया, जिसमें 3,843 व्यक्तियों को शामिल किया गया था (कैमेट, चक्रवर्ती और रोमनी 2024)। शहर की लगभग 13% आबादी मुस्लिम है, जो मोटे तौर पर भारत की मुस्लिम आबादी के अनुरूप है। यह फील्डवर्क वर्ष 2018 में किया गया था, जो कि नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) के खिलाफ व्यापक विरोध प्रदर्शन और 2020 में दिल्ली को हिला देने वाले सांप्रदायिक दंगों से पहले की अपेक्षाकृत शांतिपूर्ण अवधि थी। फिर भी, प्रत्यक्ष हिंसा का न होना भेदभाव नहीं होने की कोई गारंटी नहीं है। दिल्ली में मुस्लिम अलगाव बहुत अधिक है जो कि बेंगलुरु, हैदराबाद और अहमदाबाद जैसे शहरों के बराबर है तथा सरकारी संस्थानों में मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व सबसे कम है। इसलिए, इस सवाल का पता लगाने के लिए दिल्ली एक अच्छा मामला है।
हमने हिन्दू और मुस्लिम विविधता के विभिन्न स्तरों वाले क्षेत्रों का चयन किया। हमारा हस्तक्षेप जल-निकासी पर केंद्रित था, जो (लगभग) एक शुद्ध सार्वजनिक कल्याण है जिसे व्यक्तिगत, असमन्वित समाधानों से संबोधित नहीं किया जा सकता है। किसी मोहल्ले के एक हिस्से में कचरा जमा होने से नालियाँ जाम हो जाती हैं और परिणामस्वरूप पूरे समुदाय की भलाई प्रभावित होती है (आकृति-1)। दिल्ली की अनौपचारिक बस्तियों में, जिसमें हमारा अध्ययन स्थल भी शामिल है, जल निकासी सबसे खराब सेवाओं में से एक है। नगर निगम के कर्मचारी प्रमुख सड़कों के किनारे नालियों की सफाई करते हैं, जबकि अधिकांश बस्तियों के निवासियों को अपने प्रयासों से आंतरिक नालियों को साफ़ रखने के लिए मज़बूर होना पड़ता है। हालाँकि, स्थानीय समुदायों में सामूहिक कार्रवाई जटिल होती है और कई कारकों से प्रभावित होती है। अपने अध्ययन स्थल के सामाजिक और राजनीतिक जीवन को बेहतर ढंग से समझने के लिए, हमने सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (सीपीआर) के शोधकर्ताओं की एक टीम के साथ मिलकर काम किया, जिन्होंने सर्वेक्षण से पहले तीन महीने की अवधि में व्यापक गुणात्मक फील्डवर्क किया। हमारे मामलों का चयन और शोध डिजाइन उनके निष्कर्षों के अनुसार था।
चित्र-1. चयनित साइटों में जल-निकासी की स्थिति


सैद्धांतिक पक्ष पर हम जातीय विविधता और विकास पर किए गए समृद्ध कार्य का लाभ उठाते हैं। विभिन्न सन्दर्भों में किए गए अध्ययनों से यह बात स्पष्ट रूप से सामने आई है कि जातीय विविधता सार्वजनिक वस्तुओं के प्रावधान में बाधा डालती है- यह एक नकारात्मक सम्बन्ध है जिसे "राजनीतिक अर्थव्यवस्था में सबसे शक्तिशाली परिकल्पना" के रूप में वर्णित किया गया है (एलेसिना और फेरारा 1999, बनर्जी एवं अन्य 2005)। सूक्ष्म स्तर पर इस सम्बन्ध को प्रभावित करने वाले अंतर्निहित तंत्रों की पहचान करने के प्रयास समूह में सामूहिक कार्रवाई के समन्वय में सामाजिक मानदंडों और नेटवर्क की भूमिका की ओर इशारा करते हैं (हेब्यारिमना एवं अन्य 2007, मिगुएल और गुगर्टी 2005)। हमने तीन अलग-अलग सामाजिक जवाबदेही तंत्रों की जांच की। पहला, 'ब्लैक शीप इफ़ेक्ट', एक मनोवैज्ञानिक तंत्र है जो साथी समूह के सदस्यों के खराब प्रदर्शन को उजागर करता है। दूसरा, 'क्षैतिज जवाबदेही' या हॉरिजॉन्टल अकॉउंटेबिलिटी, गपशप के माध्यम से अपने पड़ोसियों के सामने सार्वजनिक रूप से शर्मिंदा होने की संभावना को बढ़ावा देता है। अंत में, 'वर्टिकल जवाबदेही' में स्थानीय अभिजात वर्ग, जैसे कि प्रधान (या झुग्गी-झोपड़ी समुदायों में अनौपचारिक नेता) द्वारा दबाव के माध्यम से शर्मिंदा करना शामिल है।
हमने अपने प्रयोगात्मक हेरफेर में, उत्तरदाताओं के आगे समुदाय में नालियों की सफाई और रखरखाव के लिए एक निजी फर्म को काम पर रखने की एक काल्पनिक पहल को प्रस्तुत किया। महत्वपूर्ण बात यह है कि इस पहल के लिए समुदाय के दो-तिहाई लोगों के समर्थन की आवश्यकता थी। फिर प्रतिभागियों को काल्पनिक जल निकासी योजना के बारे में पास के निवासी से एक अनुकूल प्रशंसापत्र और योगदान न करने वालों के लिए होने वाले सामाजिक परिणामों का विवरण दिया गया। हमने तीन जवाबदेही तंत्रों का परीक्षण करने के लिए प्रशंसापत्र और जवाबदेही विवरण के पहलुओं को यादृच्छिक किया। अंत में, प्रतिभागियों की पहल में योगदान करने की इच्छा के पाँच परिणामों- लाभ, रुचि, शुल्क का भुगतान करने की इच्छा, अनुबंध में प्रवेश करना और पड़ोसियों को साइन अप करने के लिए प्रभावित करना, के सूचकांक का उपयोग करके परिणामों को मापा गया, प्रत्येक को 1-4 के पैमाने पर मापा गया, जिसमें उच्च स्तर अधिक सकारात्मक प्रतिक्रियाओं का संकेत देते हैं।
शोध परिणाम
हमने पाया कि ‘उपचार समूह’ के मुसलमानों ने हस्तक्षेप के जवाब में पहल में योगदान करने की अधिक इच्छा दिखाई, जबकि ‘उपचार समूह’ के हिन्दू ‘नियंत्रण समूह’ (किसी हस्तक्षेप के अधीन नहीं) के लोगों की तुलना में अधिक इच्छुक नहीं थे (आकृति-2)। प्रमुख विविधता-घाटे यानी डाइवर्सिटी डेफिसिट की परिकल्पना को देखते हुए यह आश्चर्यजनक है। हमने उम्मीद की थी कि सजातीय क्षेत्र, यानी बहुसंख्यक हिन्दू या मुस्लिम इलाके, जवाबदेही तंत्र के जवाब में सामूहिक कल्याण हेतु अपने योगदान को बढ़ाने के लिए सबसे अधिक इच्छुक होंगे।
आकृति-2. धर्म के अनुसार जल-निकासी कार्यक्रम के प्रति अनुकूलता पर संयुक्त ‘उपचार’ का प्रभाव

टिप्पणी : सीआई विश्वास अंतराल हैं। 90/95% विश्वास अंतराल का मतलब है कि, यदि आप नए नमूनों के साथ अपने प्रयोग को बार-बार दोहराते हैं, तो 90/95% बार गणना किये गए विश्वास अंतराल में सही प्रभाव होगा।

जातीय विविधता से जुड़े निष्कर्ष भी अप्रत्याशित थे। हमने विविधता का एक सूक्ष्म और अत्यधिक सटीक माप तैयार करने के लिए उत्तरदाताओं के जीपीएस निर्देशांक (जीपीएस कोऑर्डिनटस) से डेटा का उपयोग किया। प्रत्येक उत्तरदाता के लिए 100 मीटर के दायरे (कुछ गलियों की दूरी के बराबर) में हिंदुओं और मुसलमानों के अनुपात का अनुमान लगाया। इस माप का उपयोग करने पर, पड़ोस की विविधता का परिणामों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। इसके अलावा, बहुसंख्यक हिन्दू और बहुसंख्यक मुस्लिम इलाकों में मुसलमानों के लिए ‘उपचार’ प्रभाव अधिक मज़बूत थे, जो इस बात का और सबूत है कि पड़ोस की विविधता और हमारे हस्तक्षेप के प्रभाव के बीच कोई स्पष्ट सम्बन्ध नहीं है। सामाजिक संबंधों की मज़बूती, लैंगिक और सामाजिक-आर्थिक स्थिति सहित कई प्रासंगिक कारकों को ध्यान में रखने के बाद हमारे परिणाम सही साबित होते हैं और हमें ऐसा कोई साक्ष्य नहीं मिला कि मुसलमानों की धार्मिकता या सांस्कृतिक विशिष्टता ने परिणामों को आकार दिया है।
मुस्लिम सहयोग की व्याख्या
मुसलमानों के बीच समाज-समर्थक दृष्टिकोण का क्या कारण हो सकता है? जातीय हिंसा पर विशेष रूप से मानवविज्ञानियों द्वारा किए गए अध्ययन से कुछ अंतर्दृष्टि मिलती है। अंतर-सामुदायिक तनावों के इतिहास वाले भारतीय शहरों पर किए गए कई अध्ययनों से पता चलता है कि ‘रोज़मर्रा की शांति’ को बनाए रखने की ज़िम्मेदारी मुख्य रूप से मुसलमानों के कंधों पर है, जो हिंदुओं और मुसलमानों के बीच असमान स्थिति की अंतर्निहित स्वीकृति पर आधारित है। यह यथास्थिति न केवल बहुसंख्यकों द्वारा हिंसा के खतरे से, बल्कि मुसलमानों द्वारा ‘स्व-निगरानी’ के कारण भी बनाए रखी जाती है।
'इन-ग्रुप पुलिसिंग' के ऐसे मानदंड अन्य क्षेत्रों तक फैले हुए हैं, जिसमें सार्वजनिक वस्तुओं के प्रावधान के आसपास सामूहिक कार्रवाई शामिल है। उदाहरण के लिए, वाराणसी में सांप्रदायिक शांति के एक नृवंशविज्ञान (एथ्नोग्राफिक) अध्ययन में, विलियम्स (2015) ने पाया कि हिंदुओं के विपरीत, मुसलमानों ने खराब सार्वजनिक सेवाओं के प्रति सार्वजनिक विरोध प्रदर्शन के माध्यम से प्रतिक्रिया नहीं की, क्योंकि उन्हें भेदभाव और धार्मिक तनाव बढ़ने का डर था। बजाय इसके, मुस्लिम अभिजात वर्ग ने मुस्लिम निवासियों की जीवन स्थितियों को बेहतर बनाने के लिए स्वायत्त कल्याण संस्थानों की स्थापना की। उन्होंने शांति बनाए रखने के लिए समुदाय के गरीब हिंदुओं को भी सेवाएँ दीं। दिल्ली में भी हमने देखा कि कुछ मुस्लिम बस्तियों में सांप्रदायिक दंगों की संभावित घटना के मद्देनजर निवासियों को संगठित करने के लिए ‘शांति समितियां’ बनाई गई थीं। समितियों का गठन करने वाले स्थानीय नेताओं ने सामुदायिक संगठन भी चलाए जो निवासियों को शिक्षा, बच्चों की देखभाल और स्वास्थ्य सेवा जैसी सार्वजनिक सेवाएं प्रदान करते थे। हिन्दू क्षेत्रों में इस तरह का सामुदायिक कल्याण दुर्लभ था।
हमारा तर्क है कि जवाबदेही तंत्रों के प्रति मुसलमानों की उच्च प्रवृत्ति 'रक्षात्मक सहयोग' या सुरक्षात्मक मुकाबला रणनीतियों का एक समूह है जो अल्पसंख्यक समूह के सदस्यों को शत्रुतापूर्ण सामाजिक-राजनीतिक वातावरण में सामाजिक दबाव के प्रति अधिक संवेदनशील बनाता है। राष्ट्रीय रुझानों के अनुरूप, हमारे सर्वेक्षण में शामिल मुसलमानों में पुलिस, राजनीतिक दलों और प्रधानमंत्री जैसी राज्य संस्थाओं के प्रति कम विश्वास दिखा। हालाँकि, हिंदुओं और मुसलमानों की राजनीतिक भागीदारी, सामाजिक सम्बन्ध और सरकारी अधिकारियों के साथ नेटवर्क का स्तर तुलनीय था।
दिलचस्प बात यह है कि सभी मुसलमान समाज समर्थक दृष्टिकोण नहीं रखते। हम पाते हैं कि हमारे परिणाम मुख्य रूप से उच्च जाति के मुसलमानों और उन मुसलमानों द्वारा प्रेरित हैं जो समूह के सदस्यों के प्रति अधिक दायित्व की भावना महसूस करते हैं। निम्न जाति के मुसलमान निम्न जाति के हिन्दू उत्तरदाताओं से कोई अंतर नहीं दर्शाते हैं। इसके विपरीत, उच्च जाति के हिन्दू हस्तक्षेप के प्रति नकारात्मक प्रतिक्रिया देते हैं।
हालाँकि हमारे शोध डिज़ाइन से हम संभावित तंत्रों का निश्चित रूप से परीक्षण नहीं कर पाते हैं, हम सुझाव देते हैं कि इस उपसमूह द्वारा समाज-समर्थक व्यवहार या तो समुदाय के प्रति जिम्मेदारी की भावना से प्रेरित हो सकता है, या पितृसत्ता के कारण या इसलिए कि उनके हित समूह में निहित हैं।
पूर्वाग्रह के समान इतिहास के अभाव में, बहुसंख्यक हिन्दू इसी तरह से प्रतिक्रिया नहीं करते हैं। यह समझने के लिए और अधिक शोध की आवश्यकता है समूह के भीतर विविधता किस प्रकार सामाजिक संबंधों और सामूहिक कार्रवाई को प्रभावित करती है, लेकिन हमारे परिणाम मुस्लिम समुदायों में जाति की भूमिका के बारे में महत्वपूर्ण अंतर्दृष्टि प्रदान कर सकते हैं।
निहितार्थ
हमारा शोध समूह-आधारित असमानता का एक नया आयाम प्रस्तुत करता है जो विविधता और सार्वजनिक वस्तुओं के प्रावधान: अल्पसंख्यक का दर्जा, के बीच के सम्बन्ध को मध्यम कर सकता है। प्रताड़ित अल्पसंख्यकों के सदस्यों के लिए, सामाजिक मानदंड न केवल समूह की गतिशीलता से निर्धारित होते हैं बल्कि बहिष्कार और हिंसा की धमकियों के सन्दर्भ में अंतर-समूह संबंधों से भी आकार लेते हैं। मानदंडों का कथित उल्लंघन विशेष रूप से सताए गए अल्पसंख्यक के सदस्यों के लिए परेशान करने वाला हो सकता है जब यह समूह के सदस्यों द्वारा किया जाता है, जिससे समूह के व्यवहार पर निगरानी रखने के लिए कड़े प्रयास करने पड़ते हैं।
इस प्रकार की सामना करने की रणनीतियाँ अलग-अलग तरीकों से प्रकट हो सकती हैं। पहला, लक्षित हिंसा और दमन के डर से सताए गए अल्पसंख्यकों के सदस्य सामूहिक वस्तुओं में अधिक योगदान करने के लिए प्रेरित हो सकते हैं ताकि आगे नकारात्मक ध्यान आकर्षित करने से बचा जा सके। दूसरा, भेदभाव का साझा इतिहास अल्पसंख्यकों को एकजुट होने के लिए बाध्य कर सकता है, जिससे स्थानीय सार्वजनिक वस्तुओं के लिए वे अधिक योगदान देने के लिए प्रेरित होंगे, विशेष रूप से उच्च आवासीय पृथक्करण के सन्दर्भ में, जहाँ अल्पसंख्यक अपने ही समुदाय के सदस्यों से घिरे रहते हैं। तीसरा, भेदभाव का अनुभव उत्पीड़ित अल्पसंख्यकों को अपने 'अन्य' होने को कम करके और सामान्य रूप से समाज में अधिक योगदान देकर प्रमुख समूह द्वारा अधिक स्वीकृति प्राप्त करने के लिए प्रेरित कर सकता है। इसी प्रकार, अल्पसंख्यक, प्रमुख समूह के प्रति वफादारी प्रदर्शित करने के लिए समूह के सदस्यों पर निगरानी रख सकते हैं। अंत में, जैसा कि अमेरिका में अफ्रीकी अमेरिकियों के बीच ‘सम्मान की राजनीति’ के सिद्धांतकारों का तर्क है (जेफरसन 2023), प्रताड़ित अल्पसंख्यकों के सदस्य जो अपने समुदाय के साथ अधिक मज़बूती से अपनी पहचान रखते हैं, वे अपने समुदाय की नकारात्मक रूढ़ियों का मुकाबला करने में विशेष रूप से रुचि रखते हैं, जो बदले में उन्हें अपने समूह की छवि को बढ़ाने के लिए समाज-समर्थक व्यवहार अपनाने के लिए प्रोत्साहित कर सकता है। भविष्य के शोध को रक्षात्मक सहयोग के अंतर्गत इनमें से प्रत्येक और अन्य संभावित तंत्रों को खोलना और उनका परीक्षण करना चाहिए।
अंग्रेज़ी के मूल लेख और संदर्भों की सूची के लिए कृपया यहां देखें।
लेखक परिचय : मेलनी कैमेट हार्वर्ड विश्वविद्यालय के सरकार विभाग में अंतर्राष्ट्रीय मामलों की क्लेरेंस डिलन प्रोफेसर और वेदरहेड सेंटर फॉर इंटरनेशनल अफेयर्स की निदेशक हैं। उनका शोध मध्य पूर्व और अन्य सन्दर्भों में जातीय राजनीति, संघर्ष, विकास और अधिनायकवाद की खोज करता है। पोलोमी चक्रवर्ती हार्वर्ड विश्वविद्यालय के लक्ष्मी मित्तल एंड फैमिली साउथ एशिया इंस्टीट्यूट में विज़िटिंग स्कॉलर हैं। वह अध्ययन करती हैं कि सामाजिक पहचान- जातीयता, वर्ग और विशेष रूप से सामाजिक स्थिति, राजनीतिक लामबंदी और पुनर्वितरण को कैसे आकार देती है। डेविड रोमनी ब्रिघम यंग विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के सहायक प्रोफेसर हैं जहाँ वे मध्य पूर्व अध्ययन/अरबी, अंतर्राष्ट्रीय संबंध और अंतर्राष्ट्रीय विकास के कार्यक्रमों से जुड़े हैं और राजनीति विज्ञान विभाग की वैश्विक राजनीति प्रयोगशाला में संकाय सलाहकार के रूप में भी काम करते हैं।
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